लार्ड कार्नवालिस के प्रशासकीय सुधार- Lord Cornwallis And His Administrative Reforms in Hindi

लार्ड कार्नवालिस के प्रशासकीय सुधार- Lord Cornwallis And His Administrative Reforms in Hindi

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Last updated on April 12th, 2023 at 10:04 pm

लार्ड कार्नवालिस को भारत में पिट्स इंडिया एक्ट के अंतर्गत रेखांकित शांति स्थापना तथा शासन व्यवस्था के पुनर्गठन हेतु गवर्नर-जनरल नियुक्त कर भेजा गया। वह कुलीन वृत्ति का उच्च वंशीय व्यक्ति था। उसे भारत में एक संतोषजनक भूमि प्रणाली स्थापित करने, तथा एक ईमानदार कार्यसक्षम न्याय व्यवस्था के साथ-साथ शासन व्यवस्था का भी पुर्नगठन करना था। ‘लार्ड कॉर्नवलिस के प्रशासकीय सुधार- Lord Cornwallis And His Administrative Reforms in Hindi’ आज इस ब्लॉग में हम लार्ड कार्नवालिस के सुधारों के विषय में विस्तार से जानेंगे।

लार्ड कार्नवालिस के प्रशासकीय सुधार- Lord Cornwallis And His Administrative Reforms in Hindi

लार्ड कार्नवालिस

लार्ड कार्नवालिस कौन था, वह भारत कब आया?

लॉर्ड कॉर्नवालिस, जिनका पूरा नाम चार्ल्स कॉर्नवॉलिस था, एक ब्रिटिश सैन्य और राजनीतिक अधिकारी थे, जिन्होंने 18वीं शताब्दी के अंत में भारत के गवर्नर-जनरल के रूप में कार्य किया। उनका जन्म 31 दिसंबर, 1738 को लंदन, इंग्लैंड में हुआ था और उनकी मृत्यु 5 अक्टूबर, 1805 को गाजीपुर, भारत में हुई थी।

लॉर्ड कार्नवालिस पहली बार 1786 में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के नए गवर्नर-जनरल के रूप में भारत आए। उन्होंने 1786 से 1793 तक और 1805 से 1805 में अपनी मृत्यु तक, भारत के गवर्नर-जनरल के रूप में दो पदों पर कार्य किया। अपने कार्यकाल के दौरान, लॉर्ड कार्नवालिस ने कॉर्नवॉलिस कोड या स्थायी बंदोबस्त सहित विभिन्न प्रशासनिक और न्यायिक सुधारों को लागू किया, जिसका उद्देश्य प्रशासनिक व्यवस्था को स्थिर करना था।

लॉर्ड कार्नवालिस अपने सैन्य करियर के लिए भी प्रसिद्ध हैं, विशेष रूप से अमेरिकी क्रांतिकारी युद्ध के दौरान एक ब्रिटिश कमांडर के रूप में उनकी भूमिका के लिए, जहां उन्होंने 1781 में यॉर्कटाउन की घेराबंदी में आत्मसमर्पण कर दिया था। उन्हें अक्सर ब्रिटिश औपनिवेशिक इतिहास में एक प्रमुख व्यक्ति के रूप में याद किया जाता है। भारत और 18वीं शताब्दी के अंत में भारत में ब्रिटिश शासन में उनका योगदान।

लॉर्ड डलहौजी के सुधार और उनकी विलय नीति हिंदी में

  • लार्ड कार्नवालिस के न्यायिक सुधार – भारत में न्यायिक सेवाओं का जन्मदाता 
  • लार्ड कार्नवालिस ने पहला कार्य यह किया कि जिले की समस्त शक्ति कलेक्टर के हाथों में सौंप दी। 
  • जिले में तैनात कार्यवाह कलेक्टरों ( collectors in-charge ) को 1787 से दीवानी अदालतों के दीवानी न्यायाधीश भी नियुक्त  कर दिया। इसके अतिरिक्त उन्हें फौजदारी शक्तियां और सीमित मामलों में फौजदारी न्याय करने की भी शक्ति प्रदान की गयी। 

1790 और 1792 में फौजदारी अदालतों में फेबदल करते हुए भारतीय न्यायाधीश वाली जिला फौजदारी अदालतों को समाप्त कर  उनके स्थान पर 4 भ्रमण करने वाली अदालतें गठित कर दीं3 बंगाल के  लिए और एक बिहार के लिए। इन अदालतों में कार्य यूरोपीय अध्यक्ष , काजी और मुफ़्ती की सहायता से  करता था। ये न्यायलय जिलों में  भ्रमण करके नगर दण्डनायकों द्वारा निर्देशित फौजदारी मामलों का निर्णय करते थे। 

इसी प्रकार मुर्शिदाबाद की सदर निजामत  अदालत के स्थान पर एक ऐसा ही न्यायलय कलकत्ता में स्थापित कर दिया गया। इस न्यायलय में गवर्नर-जनरल तथा उसकी परिषद् के सदस्य सम्मिलित थे। तथा जिसकी सहायता के लिए मुख्य काजी तथा मुख्य मुफ़्ती होते थे। 

 कार्नवालिस कोड (संहिता ) कब बना- 1793 

     लार्ड कार्नवालिस   ने अपने द्वारा किये गए न्यायिक सुधारों को 1793 तक अंतिम रूप प्रदान कर कार्नवालिस संहिता  के रूप में प्रस्तुत किया। 

 लार्ड कार्नवालिस का यह सुधार सिद्धांत “शक्तियों के पृथकीकरण” (SEPARATION OF POWER) पर आधारित था। उसने कर तथा न्याय प्रशासनों को अलग-अलग कर दिया। इससे पूर्व तक जिले में कलेक्टरों के पास भूमिकर विभाग, तथा विस्तृत न्यायिक तथा दंडनायक शक्तियाँ होती थीं।

कार्नवालिस ने यह अनुभव किया कि कलेक्टर के रूप में किये गए अन्याय का निर्णय कोई स्वयं न्यायाधीश के रूप में कैसे कर सकता है ? जमींदार और कृषक को इस न्याय पर विश्वास नहीं होगा। इस प्रकार कार्नवालिस संहिता द्वारा कलेक्टर की न्यायीय तथा फौजदारी शक्तियां छीन ली गयीं और उसके पास केवल कर संबंधी शक्तियां ही रह गयीं। 

  • जिला दीवानी न्यायालयों में कार्य के लिए एक नए अधिकारीयों कीश्रेणीं जिला न्यायाधीशों ( district judge ) की गठित की गयी। इनको फौजदारी तथा पुलिस के कार्य भी दिए गए। 
  • दीवानी अदालतों की एक क्रमिक श्रंखला स्थापित की गई। 
  • कर  तथा दीवानी मामलों का भेद समाप्त कर इन अदालतों को समस्त दीवानी मामलों को सुनने का अधिकार दे दिया गया। 
  • मुंसिफ की अदालत 50 रूपये तक के मामले सुन सकती थी और इसका अध्यक्ष एक भारतीय अधिकारी होता था। 
  • दीवानी अदालत से ऊपर रजिस्ट्रार की अदालत थी जो 200 रुपए तक की मामले सुनती थी तथा इसका न्यायधीश यूरोपीय होता था। 
  • उपर्युक्त दोनों न्याययलयों से अपील नगर अथवा जिला अदालतों में हो सकती थी। 
  • जिला न्यायधीश सभी दीवानी मामले सुन सकते थे। इसमें उनकी सहायता भारतीय विधिवेत्ता करते थे। 
  • जिला अदालतों के ऊपर चार प्रांतीय अदालते थीं। जहां जिला न्यायलयों से अपील होती थी। यह प्रांतीय अदालतें कलकत्ता, ढाका, मुर्शिदाबाद तथा पटना में स्थित थीं। 
  • ये प्रांतीय अदालतें 1000 रूपये तक के मामले सुन सकती थी और इनका न्यायाधीश यूरोपीय ही होता था। 
  • इससे ऊपर अपील सदर दीवानी अदालत में होती थी जिसका अधिकारी गवर्नर-जनरल और उसकी परिषद होती थी। ये 1000 से अधिक के मामले सुनते थे। 
  • 5000 रूपये से अधिक के मामले सपरिषद सम्राट को प्रस्तुत किये जाते थे।
  • इन अदालतों की क्रयविधि निश्चित कर दी गयी और इसमें भारतीय अधिकारी भी थे उनकी योग्यताएँ भी निर्धारित थीं तथा हिन्दुओं पर हिन्दू विधि तथा मुसलमानों पर मुस्लिम विधि लागू होती थी। 
  • इन अदालतों से संबंधित जिलों में रहने वाले यूरोपियन भी इन अदालतों के अधीन कर दिए गए। 
  • कलकत्ता से बाहर रहने वाले यूरोपियन तभी वहां रह सकते थे जब वे इन अदालतों की अधीनता स्वीकार करते थे। 
  • सभी सरकारी अधिकारी इन अदालतों के प्रति उत्तरदायी कर दिए गए।
  • भारत के प्रमुख ब्रिटिश गवर्नर/गवर्नर-जनरल और वायसराय और उनकी उपलब्धियां  

“कॉर्नवालिस ने कानून की विशिष्टता ( Sovereignty of Law ) का नियम जो इससे पूर्व नहीं था, भारत में लागू कर दिया।

फौजदारी न्याय व्यवस्था में भी अनेक परिवर्तन किये गए। भारतीय अधिकारीयों के अधीन कार्य करने वाले जिला फैजादारी न्यायलय समाप्त कर दिये गए। जिला न्यायधीश को अपराधियों अथवा व्यवस्था भंग करने वालों को बंदी बनाने की आज्ञा देने का अधिकार दे दिया गया। छोटे-छोटे मामलों का वह स्वयं निर्णय करता था।

अधिक गंभीर मामलों को वह भ्रमण करने वाली अदालतों के सामने प्रस्तुत करता था। अतः भ्रमण करने वाली अदालतें जो दीवानी मामले भी सुनती थीं, फौजदारी भ्रमण करने वाली अदालतों के रूप में में कार्य करती थीं। इन्हें मृत्युदंड देने की अनुमति थी परन्तु इसकी पुष्टि सदर निज़ामत अदालत द्वारा आवश्यक थी जो की फौजदारी मामलों में उच्चतम न्यायालय का कार्य करती थी। गवर्नर-जनरल को क्षमा दान अथवा सजा कम करने का अधिकार था। 

फौजदारी कानून में सुधार 

  • कार्नवालिस के पूर्वगामी वॉरेन हेस्टिंग्ज़ ने तो सिर्फ सरकार के क़ानूनी मामलों में हस्तक्षेप करने के अधिकार पर ही बल दिया था, परन्तु  कार्नवालिस ने यह भी कहा कि सरकार को फौजदारी कानून में सुधार करने का अधिकार है। इस पर मुसलमानों का यह कहना था कि फौजदारी कानून दैव निर्दिष्ट हैं। 
  • कार्नवालिस ने 1790-93 के बीच फौजदारी कानून में कुछ परिवर्तन किये जिन्हें ब्रिटिश संसद ने 1797 में एक अधिनियम द्वारा स्वीकृति प्रदान कर दी। इसके अनुसार —
  • दिसम्बर 1790 में मुसलमान न्यायाधिकारियों के मार्गदर्शन के लिए एक नियम बनाया गया जिसके अनुसार हत्या के मामलों में हत्यारे की भावना पर अधिक बल दिया गया न कि हत्या के अस्त्र अथवा तरीके पर। 
  • इसके अतिरिक्त मृतक के परिजनों की इच्छा पर क्षमा करना अथवा ‘रक्त का मूल्य’ निर्धारित करना बंद कर दिया गया। 
  • किस मामले की गंभीरता में अंग विच्छेदन के स्थान पर कड़ी क़ैद की सजा ( hard labour ) की आज्ञा दी गई। 
  • 1793 में यह भी निश्चित किया गया कि साक्षी के “धर्म विशेष” का मामले पर कोई प्रभाव नहीं होगा। 
  • मुस्लिम कानून के अनुसार मुसलमानों की हत्या के मामले में अन्य धर्म वाले साक्षी ( गवाही ) नहीं दे सकते थे। 

 कार्नवालिस के न्यायिक सुधारों की समीक्षा     

कार्नवालिस द्वारा किये गए न्यायिक सुधार पश्चिम की न्यायायिक धारणाओं और निष्पक्षता पर आधारित थे। राजा अथवा उसके कार्यकर्ताओं के निजी कानून अथवा धार्मिक कानून का स्थान एक धर्मनिरपेक्ष कानून ने ग्रहण कर लिया। विधि की विशिष्टता स्थापित हो गई। परन्तु कार्नवालिस संहिता के तात्कालिक परिणाम बहुत उत्साहजनक नहीं थे। यह नया कानून भारतीय परिपेक्ष में बहुत जति, नवीन और अपरिचित सा था कि जनसामान्य इसका लाभ नहीं उठा सकता था। 

यह नया न्याय खर्चीला और मंद गति से चलने वाला था कि एक धनाढ्य व्यक्ति एक अशिक्षित तथा निर्धन व्यक्ति को बड़ी सरलता से हरा सकता था। झूठे शाक्षी तैयार कर लिए जाते थे। झूठ तथा बेईमानी का बोलबाला था। मुकदमेंबाजी बढ़ गई। न्यायालयों में निरंतर बढ़ते मुकदमों से काम बढ़ गया और फैसलों में देरी होने लगी। परन्तु प्रमुख बात यह थी कि परम्परागत न्याय प्रणाली, पंचायत, जमींदार, काजी, फौजदार तथा नाजिम इत्यदि के स्थान पर यूरोपीय नयायधीश आ गए थे जो भारतीय रीती-रिवाजों तथा परम्पराओं से पूर्णतया अनभिज्ञ थे। 1817 में मुनरो ने भी इन यूरोपीय न्यायधीशों की अनभिज्ञता की खिल्ली उड़ाई थी। 

कार्नवालिस के पुलिस सुधार 

कार्नवालिस ने न्यायिक सुधारों को लागू करने के बाद पुलिस सुधार की ओर ध्यान दिया। उसने पुलिस विभाग में महत्वपूर्ण सुधार किये जो इस प्रकार थे —

  • कार्नवालिस ने पुलिस में बढ़ते भ्रष्टाचार को रोकने के लिए उनके वेतन-भत्तों में वृद्धि कर दी। 
  • चोरों और हत्यारों की गिरफ़्तारी पर ईनाम देने की भी घोषणा की। 
  • ग्रामीण क्षेत्रों में जमींदारों के पुलिस अधिकार समाप्त कर दिए गए तथा अपने क्षेत्र में डकैती तथा हत्या के लिए जिम्मेदार नहीं रहे। अंग्रेज दण्डनायकों को जिले की पुलिस का भार सौंपा गया। 
  • जिलों को 400 वर्ग मील के क्षेत्रों में विभाजित कर दिया गया तथा प्रत्येक क्षेत्र में एक दरोगा तथा उसकी सहायता के लिए पुलिस कर्मचारी नियुक्त किये गए। 

कार्नवालिस के कर संबन्धी सुधार 

  • कार्नवालिस ने कर  व्यवस्था में सुधार करते हुए 1787 में प्रान्त को राजस्व क्षेत्रों में विभाजित कर दिया जिस पर एक कलेक्टर नियुक्त कर दिया गया। इनकी संख्या 36 से घटाकर 23 कर दी गई। 
  • पुरानी राजस्व समिति का नाम बदलकर राजस्व बोर्ड ( board of revenue ) कर दिया गया। इसका कार्य कलेक्टरों के कार्य का निरीक्षण करना था। 
  • 1790 तक वार्षिक ठेका प्रणाली ही चलती रही। 1790 में कॉर्नवालिस ने कोर्ट ऑफ़ डाइरेक्टर्स की अनुमति से जमींदारों को भूमि का स्वामी स्वीकार कर लिया। पर शर्त यह थी कि वे वार्षिक कर कंपनी को देना स्वीकार करें। 
  • ठेके की राशि में 1/11 भाग कम कर दिया गया। प्रारम्भ में यह व्यवस्था दस वर्ष के लिए थी परन्तु 1793 में यह स्थाई कर दी गई। 

कार्नवालिस के व्यापार तथा वाणिज्य संबन्धी सुधार 

व्यापार विभाग में बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार फैला हुआ था जिस पर कॉर्नवालिस ने ध्यान दिया। प्रायः कम्पनी का माल घाटे में बिकता था जब कि कंपनी के कार्यकर्ताओं द्वारा खाते  में भेजे माल पर लाभ होता था। 

1774 में व्यापार बोर्ड स्थापित होने के पश्चात् कम्पनी अपना माल यूरोपीय तथा भारतीय ठेकेदारों द्वारा मोल लेती थी। ये लोग प्रायः घटिया माल ऊँचे मूल्य पर कम्पनी को देते थे। व्यापर बोर्ड के सदस्य इन अनियमितताओं को रोकने के स्थान पर उनसे घूस तथा कमीशन लेते थे। 

कार्नवालिस ने सदस्यों की संख्या 11 से घटाकर 5 कर दी तथा ठेकेदारों के स्थान पर गुमाश्तों तथा व्यापारिक प्रतिनिधियों द्वारा माल लेने की व्यवस्था बना दी।  ये लोग माल निर्माताओं को पेशगी धन देते थे और भाव निश्चित कर लेते थे जिससे कम्पनी को माल सस्ता मिलना आरम्भ हो गया। इससे कपंनी की आर्थिक स्थित सुदृढ़ होने लगी। यह व्यवस्था कम्पनी के अंतिम दिनों तक चलती रही। 

घूस, भ्रष्टता तथा निजी व्यापार के दोषों को समाप्त करना 

कॉर्नवालिस धन के लोभ से ऊपर था जिसके कारण क्लाइव तथा वॉरेन हेस्टिंग्ज बदनाम हुए थे। उसने अधिकारीयों के घूस और उपहार लेने तथा निजी व्यापार को पूर्णतया प्रतिबंधित कर दिया। कार्नवालिस के अनुसार कर्मचारियों के वेतन कम होने के कारण वे भ्रष्टाचार और निजी व्यापार में संलग्न रहते हैं अतः उसने अधिकारीयों और कमचारियों के वेतन बढ़ा दिए। कलेक्टर को 1500 रूपये मासिक के साथ ही संग्रहित कर पर 1 प्रतिशत कमीशन दिया जाने लगा। 

 प्रशासनिक व्यवस्था का युरोपीयकरण 

कॉर्नवालिस भी जातीय श्रेष्ठता के भेदभाव से प्रेरित था तथा वह भारतीयों को हीन दृष्टि से देखता था था ( तथापि भारत का सवर्ण वर्ग भी इसी भावना से प्रेरित था ( अब भी है ) लेकिन अंग्रेजों ने उन्हें शायद एक सबक दिया ) . कॉर्नवालिस की नजर में प्रत्येक भारतीय भ्रष्ट था। उसने प्रत्येक उच्च पद पर सिर्फ यूरोपियन की नियुक्ति की।

अनुबद्ध सेवाओं के द्वार भारतीयों के लिए बंद कर दिए गए। सेना में जमादार तथा सूबेदार, प्रशासनिक सेवा में मुंसिफ, सदर अमीन अथवा डिप्टी कलक्टर से ऊँचे पद भी उन्हें उपलब्ध नहीं थे। सर जॉन शोर के अनुसार अंग्रेजों की नीति यह थी कि अंग्रेजों को लाभ पहुँचाया जाये तथा भारतीयों को केवल वही पद दिया जाये जिसके लिए अंग्रेज उपलब्ध न हो। 

Conclusion

इस प्रकार कार्नवालिस ने वारेन हेस्टिंग्ज के कार्य को पूर्ण किया और भारत में एक सुधार प्रक्रिया  से प्रशासनिक कुशलता बढ़ाने का कार्य किया।  यद्यपि वह वारेन हेस्टिंग्ज और वैलेजली की भांति बहुत प्रतिभाशाली नहीं था। परन्तु उसने सर जॉन शोर, जेम्स ग्रांट और जार्ज बारलो जैसे सहायकों की मदद से प्रशासनिक सुधारों में कामयाबी  हासिल की। पुलिस और न्यायिक सुधार के लिए कार्नवालिस सदैव स्मरणीय रहेगा।  

भारत में लॉर्ड कार्नवालिस सुधारों के बारे में अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न-FAQ

प्रश्न: लॉर्ड कार्नवालिस कौन थे?

A: लॉर्ड कार्नवालिस एक ब्रिटिश राजनेता और सैन्य अधिकारी थे, जिन्होंने 1786 से 1793 तक भारत के गवर्नर-जनरल के रूप में कार्य किया।

प्रश्न: लॉर्ड कार्नवालिस ने कौनसे सुधार किये थे?

ए: लॉर्ड कार्नवालिस के सुधार भारत के गवर्नर-जनरल के रूप में अपने कार्यकाल के दौरान लॉर्ड कार्नवालिस द्वारा लागू किए गए प्रशासनिक और न्यायिक सुधारों की एक श्रृंखला थी। इन सुधारों का उद्देश्य भारत पर ब्रिटिश नियंत्रण को मजबूत करना और देश में ब्रिटिश प्रशासन में सुधार करना था।

प्रश्न: लॉर्ड कार्नवालिस के सुधार कब लागू किए गए थे?

A: लॉर्ड कार्नवालिस के सुधारों को भारत में गवर्नर-जनरल के रूप में लॉर्ड कार्नवालिस के कार्यकाल के दौरान लागू किया गया था, जो 1786 से 1793 तक चला था।

प्रश्न: लॉर्ड कार्नवालिस के सुधारों की मुख्य विशेषताएं क्या थीं?

ए: लॉर्ड कार्नवालिस सुधारों की मुख्य विशेषताएं थीं:

स्थायी बंदोबस्त: लॉर्ड कार्नवालिस ने 1793 में बंगाल में स्थायी बंदोबस्त की शुरुआत की, जिसका उद्देश्य भूस्वामियों से निश्चित राजस्व संग्रह दर स्थापित करना था, जिससे उन्हें ब्रिटिश सरकार को एक निश्चित राजस्व के भुगतान के बदले भूमि का वंशानुगत अधिकार प्रदान किया जा सके।

सिविल न्यायालयों की स्थापना: लॉर्ड कार्नवालिस ने दीवानी अदालतों की एक नई प्रणाली की स्थापना की, जिसे कॉर्नवॉलिस कोड या कॉर्नवालिस सहिंता के रूप में जाना जाता है, जिसका उद्देश्य भारत में न्याय की एक अधिक कुशल और निष्पक्ष प्रणाली शुरू करना था। इसमें जिला न्यायालय, सर्किट कोर्ट और सदर दीवानी अदालत की शुरुआत शामिल थी।

राजस्व और न्यायिक कार्यों का पृथक्करण: लॉर्ड कार्नवालिस ने शासन की अधिक पारदर्शी और निष्पक्ष प्रणाली सुनिश्चित करने के लिए भारत में ब्रिटिश प्रशासन के राजस्व और न्यायिक कार्यों को अलग कर दिया। इसका मतलब यह था कि राजस्व अधिकारी अब राजस्व संग्रह और न्यायिक कार्यों दोनों के लिए जिम्मेदार नहीं थे।

अंग्रेजी कानून: लॉर्ड कार्नवालिस ने भारत में न्यायिक प्रणाली के आधार के रूप में अंग्रेजी कानून की शुरुआत की, सिविल अदालतों की अध्यक्षता करने के लिए अंग्रेजी न्यायाधीशों की नियुक्ति की। इससे भारतीय न्यायिक प्रणाली में अंग्रेजी कानूनी सिद्धांतों और प्रक्रियाओं को अपनाने का मार्ग प्रशस्त हुआ।

प्रश्न: लॉर्ड कार्नवालिस सुधारों के क्या प्रभाव थे?

ए: लॉर्ड कार्नवालिस के सुधारों के प्रभाव मिश्रित थे। जबकि सुधारों का उद्देश्य भारत में ब्रिटिश प्रशासन की दक्षता और पारदर्शिता में सुधार करना था, उन्होंने कई नकारात्मक परिणाम भी दिए। लॉर्ड कार्नवालिस सुधारों के कुछ प्रभावों में शामिल हैं:

भू-स्वामित्व का अत्याचार: स्थायी बंदोबस्त के कारण कुछ धनी भूस्वामियों के हाथों में भू-स्वामित्व का केन्द्रीकरण हो गया, जिसके परिणामस्वरूप किसानों और ग्रामीण गरीबों का शोषण हुआ।

पारंपरिक भूमि अधिकारों की हानि: स्थायी बंदोबस्त की शुरूआत के परिणामस्वरूप किसानों के पारंपरिक भूमि अधिकारों का भी नुकसान हुआ, क्योंकि उन्हें ब्रिटिश सरकार को निश्चित राजस्व का भुगतान करने के लिए मजबूर किया गया, जिससे गरीबी और ऋणग्रस्तता में वृद्धि हुई।

भारतीय न्यायपालिका का अंग्रेजीकरण: भारतीय न्यायपालिका में अंग्रेजी कानून और अंग्रेजी न्यायाधीशों की शुरूआत के कारण पारंपरिक भारतीय कानूनी प्रथाओं और रीति-रिवाजों का क्षरण हुआ और भारतीय कानूनी प्रणाली का अंग्रेजीकरण हुआ।

भारतीय प्रशासन पर ब्रिटिश नियंत्रण: लॉर्ड कार्नवालिस सुधारों ने भारत में प्रशासन पर ब्रिटिश नियंत्रण को और मजबूत किया, जिससे भारतीय मामलों पर ब्रिटिश प्रभाव और नियंत्रण में वृद्धि हुई।

प्रश्न: क्या लॉर्ड कार्नवालिस सुधारों का कोई सकारात्मक प्रभाव पड़ा?

उत्तर: हां, लॉर्ड कार्नवालिस सुधारों के कुछ सकारात्मक प्रभाव पड़े। इसमे शामिल है:

एक बेहतर न्यायिक प्रणाली का परिचय: कॉर्नवॉलिस कोड ने दीवानी अदालतों की स्थापना और राजस्व और न्यायिक कार्यों को अलग करने के साथ भारत में न्याय की एक अधिक कुशल और निष्पक्ष प्रणाली की शुरुआत की।

अंग्रेजी कानूनी सिद्धांतों को अपनाना: भारतीय न्यायिक प्रणाली के आधार के रूप में अंग्रेजी कानून की शुरूआत ने भारत में आधुनिक कानूनी सिद्धांतों और प्रक्रियाओं को अपनाने का नेतृत्व किया, जिससे एक अधिक संरचित और संगठित कानूनी प्रणाली के विकास में मदद मिली।

राजस्व संग्रह का मानकीकरण: स्थायी बंदोबस्त का उद्देश्य निश्चित राजस्व संग्रह दरों को स्थापित करना था, जिससे भूस्वामियों को भूमि पर वंशानुगत अधिकार प्रदान किया जा सके। जबकि इसके नकारात्मक प्रभाव थे, जैसे भूमि एकाग्रता, इसने राजस्व संग्रह प्रक्रिया में स्थिरता और पूर्वानुमेयता भी लाई, जिससे भारत में ब्रिटिश क्षेत्रों के प्रशासन में मदद मिली।

प्रशासन का व्यावसायीकरण: लॉर्ड कार्नवालिस सुधारों ने भारत में प्रशासन के लिए एक अधिक पेशेवर दृष्टिकोण लाया, जिसमें प्रशिक्षित अंग्रेजी अधिकारियों को दीवानी अदालतों की निगरानी और राजस्व और न्यायिक कार्यों को अलग करने की शुरुआत की गई। इससे भारत में ब्रिटिश प्रशासन की समग्र दक्षता और प्रभावशीलता में सुधार करने में मदद मिली।

कानूनी प्रणाली का आधुनिकीकरण: अंग्रेजी कानून और कानूनी सिद्धांतों को अपनाने से भारतीय कानूनी प्रणाली को आधुनिक बनाने में मदद मिली, और एक कानूनी ढांचे के विकास की नींव रखी जिसमें भारतीय और अंग्रेजी दोनों कानूनी अवधारणाएं शामिल थीं, जिसका भारतीय कानूनी प्रणाली पर स्थायी प्रभाव पड़ा है।


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