बलबन का इतिहास: प्रारम्भिक जीवन, राजतत्व का सिद्धांत, लोह एवं रक्त की नीति

बलबन का इतिहास: प्रारम्भिक जीवन, राजतत्व का सिद्धांत, लोह एवं रक्त की नीति

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Last updated on April 14th, 2023 at 10:48 am

इतिहास में ऐसे बहुत से शासक हुए हैं जिन्होंने अपने समय को अपने अनुसार मोड़ दिया और इतिहास में अपना नाम शक्तिशाली शासक के रूप में दर्ज कराया। ‘एक गुलाम जो बन गया बादशाह : बलबन history of Balban In Hindi’ बलबन भी इसी ऐसा ही शासक था, जिसने अपना जीवन एक गुलाम  हैसियत से प्रारम्भ किया लेकिन वह शासन के सर्वोच्च पद बादशाह तक पहुंचा। इस ब्लॉग के माध्यम से हम बलबन का इतिहास, प्रारंभिक जीवन, बलबन की उपलब्धियां, बलबन की लौह एवं की नीति, बलबन का राजतत्व का सिद्धांत, आदि के विषय में विस्तार से जानेंगे।

BALBAN

बलबन का इतिहास-एक गुलाम जो बन गया बादशाह

बलबन का प्रारंभिक जीवन

सुल्तान बलबन, जिसे उलुग खान के नाम से भी जाना जाता है, भारत में दिल्ली सल्तनत का मध्यकालीन शासक था। उनका जन्म 13वीं शताब्दी की शुरुआत में तुर्किस्तान के क्षेत्र में हुआ था, जो अब आधुनिक उज्बेकिस्तान है। उसके प्रारंभिक जीवन और पृष्ठभूमि के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं है, क्योंकि उस समय के ऐतिहासिक साक्ष्य दुर्लभ और अक्सर विरोधाभासी हैं।

कुछ स्रोतों के अनुसार, बलबन तुर्की वंश का था और एक कुलीन परिवार में पैदा हुआ था। वह एक शक्तिशाली मध्य एशियाई शासक ख़्वारज़म शाह के दरबार में बड़ा हुआ, और उसने साहित्य, धर्मशास्त्र और सैन्य रणनीति में शिक्षा प्राप्त की। बलबन को छोटी उम्र से ही एक कुशल योद्धा और एक प्रतिभाशाली राजनयिक के रूप में जाना जाता था, और वह ख्वारज़्म शाह के प्रशासन के रैंकों के माध्यम से तेजी से बढ़ा।

13 वीं शताब्दी की शुरुआत में, चंगेज खान के नेतृत्व में मंगोलों ने ख्वारज़्म शाह के दायरे सहित कई क्षेत्रों पर विजय प्राप्त करते हुए मध्य एशिया में प्रवेश किया। बलबन, ख़्वारज़्म शाह के दरबार के अन्य सदस्यों के साथ शरण लेने के लिए भारत भाग गया। भारत में, बलबन ने दिल्ली सल्तनत की सेवा में प्रवेश किया, जो एक शक्तिशाली मुस्लिम साम्राज्य था जिसने उस समय उत्तर भारत के अधिकांश हिस्सों पर शासन किया था।

बलबन के कौशल और क्षमताओं ने दिल्ली सल्तनत के तत्कालीन शासक इल्तुतमिश का ध्यान आकर्षित किया, जिन्होंने उसे अपना प्रधान मंत्री और कमांडर-इन-चीफ नियुक्त किया। बलबन ने इल्तुतमिश की वफादारी से सेवा की और राजनीतिक अस्थिरता की अवधि के दौरान दिल्ली सल्तनत की शक्ति को मजबूत करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इल्तुतमिश की मृत्यु के बाद, बलबन ने अपने लिए सिंहासन हथिया लिया और 1266 में दिल्ली का सुल्तान बन गया।

सुल्तान के रूप में, बलबन ने एक सख्त और निरंकुश शासन लागू किया, अक्सर अपने अधिकार को बनाए रखने के लिए कठोर उपायों का सहारा लिया। उसने विद्रोहों को दबा दिया, प्रशासन को समेकित किया और सैन्य अभियानों के माध्यम से साम्राज्य के क्षेत्रों का विस्तार किया। बलबन ने सख्ती से शासन किया और एक निर्दयी और निरंकुश नेता होने की प्रतिष्ठा स्थापित की।

बलबन के प्रारंभिक जीवन के बारे में विवरण दुर्लभ हैं, और उसके बारे में जो कुछ भी जाना जाता है, वह उसके शासनकाल के दौरान या उसकी मृत्यु के बाद लिखे गए ऐतिहासिक खातों से आता है। जैसे, उनके प्रारंभिक जीवन के कई पहलू रहस्य में डूबे हुए हैं और अटकलों के अधीन हैं।

बलबन का जन्म तुर्कों के किस सम्प्रदाय में हुआ

बलबन जिसे इतिहास में गयासुद्दीन बलबन के नाम से जाना जाता है का जन्म इलबारी तुर्क परिवार में हुआ था। बलबन का वास्तविक नाम बहाउद्दीन था। बलबन को उसके बचपन में ही मंगोलो ने पकड़ लिया था और ख्वाजा जमालुद्दीन ( बसरा का रहने वाला था जो स्वभाव से धार्मिक व विद्वान् था ) को बेच दिया।

बलबन भारत कैसे आया 

ख्वाजा जमालुद्दीन जिसने बलबन को मंगोलो से ख़रीदा था 1232 ईस्वी में अन्य दासों के साथ बलबन को दिल्ली लाया और इल्तुतमिश ने बलबन को खरीद लिया। 
बलबन इल्तुतमिश के तुर्क-ए-चहलगानी ( चालीस तुर्कों का दल ) का प्रमुख सदस्य बन गया। रजिया सुल्ताना के समय में वह -अमीर-ए-शिकार ( लार्ड ऑफ़ दि हंट ) के पद पर पहुँच गया। बलबन ने रजिया के विरुद्ध तुर्की सरदारों के षणयंत्र में प्रमुख भूमिका निभाई। 

बलबन का उत्कर्ष 

बहराम शाह के समय में बलबन ने काफी तरक्की की। बहराम शाह ने उसे रेवाड़ी की जागीर प्रदान की साथ ही हांसी जिला भी दिया। नसरुद्दीन को सुल्तान बनाने में बलबन का प्रमुख योगदान था।

बलबन की पुत्री का विवाह किसके साथ हुआ 

नासिरुद्दीन ने सुल्तान बनने के पश्चात् बलबन को ‘नाइब-ए-ममलिकत’ नियुक्त कर दिया। उसी वर्ष बलबन ने अपनी पुत्री का विवाह नासिरुद्दीन के साथ कर दिया, इस प्रकार शासन की समस्त शक्ति बलबन के हाथों में आ गयी।

बलबन की शक्ति का ह्रास 

बलबन की बढ़ती शक्ति से बहुत से तुर्क अमीर उसी ईर्ष्या करने लगे। बलबन के इन प्रमुख विरोधियों में इमादुद्दीन रैहान प्रमुख था। सुल्तान नासिरुद्दीन भी तुर्की सरदारों के कहने में आ गया आ गया और बलबन व उसके भाई का निष्कासन कर दिया। इमादुद्दीन रैहान प्रधानमंत्री बन गया। परन्तु रैहान अधिक समय तक सत्ताधारी न रह पाया तुर्की सरदार पुनः बलबन पक्ष में आ गए। 1254 ईस्वी में रैहान का निष्कासन हो गया और बलबन पुनः नाइब के पद पर नियुक्त हुआ। 

बलबन शासक कैसे बना 

     सुल्तान नासिरुद्दीन जो उसका दामाद भी था की मृत्यु 1266 ईस्वी में हो गई। बलबन ने उसकी मृत्युपरांत शासन पर कब्जा कर स्वयं को सुल्तान घोषित कर दिया। सुल्तान का पद धारण करते समय बलबन की आयु 60 वर्ष थी।

बलबन के सामने चुनौतियाँ 

  इल्तुतमिश की मृत्यु के बाद  उसके अधिकांश उत्तराधिकारी अयोग्य व निर्वल थे जिसके कारण पुरे साम्राज्य में अव्यवस्था व्याप्त थी। 
   जियाउद्दीन बरनी इस अवस्था  वर्णन इन शब्दों में करता है —-

शासन सत्ता का खौफ, जो समस्त सुदृढ़ शासन का आधार है और जो राज्य के ऐश्वर्यपूर्ण वैभव का स्रोत है राज्य की समस्त प्रजा के दिल  से निकल चुका था और देश निम्न दशा में पहुँच चुका था

इसके अतिरिक्त दुर्दांत मंगोलों के हमले भी शुरू हो गए थे। इन संकटकालीन परिस्थितियों में बलबन ने स्वयं को दास वंश के अन्य सुल्तानों से कहीं अधिक योग्य सिद्ध किया।

बलबन के सामने चुनौतियाँ और उनका निवारण

 दोआब की चुनौती और उसका हल — एक शक्तिशाली सेना संगठित कर बलबन ने दिल्ली के निकट के क्षेत्रों की शासन व्यवस्था चुस्त-दुरुस्त करने  का प्रयास किया। दोआब के असुरक्षित माहौल को बलबन  ने अतिशीघ्र डाकुओं और विद्रोहियों से मुक्त कर दिया। दोआब व अवध में विद्रोहियों से निपटने में बलबन ने स्वयं नेतृत्व किया।

कटेहर ( रुहेलखंड ) के विद्रोहियों का दमन – कटेहर में बलबन ने अपनी सेनाओं को हमले करने का आदेश दिया। वहां क्रूरतापूर्वक लोगों का कत्ल किया गया और उनके मकानों में आग लगा दी गई। वहां की स्त्रियों और बच्चों को दास बनाया गया। कटेहर के लोगों में इसका आतंक इतना बढ़ा कि उन्होंने फिर अपना सर उठाने की जुर्रत नहीं की।

बलबन के विरुद्ध बंगाल के किस शासक ने विद्रोह किया

बंगाल का शासक तुगरिल खां एक चुस्त, साहसी, व उदार स्वभाव वाला तुर्क शासक था। उसने बंगाल में एक अत्यंत कुशल शासन व्यवस्था की स्थापना की। मुगलों के आक्रमणों और बलबन की वृद्धावस्था को देखकर तुगरिल खां ने पूर्ण स्वतंत्र सत्ता की स्थापना का प्रयास  किया। तुगरिल खां के आक्रमण का समाचार सुन बलबन ने अल्पतगीन (अमीर खां) के  नेतृत्व में एक बड़ी सेना बंगाल भेजी। दोनों सेनाओं में संघर्ष हुआ जिसमें अल्पतगीन को पराजय का सामना करना पड़ा।

1280 ईस्वी में एक अन्य सेना मलिक तरगी के नेतृत्व में बंगाल भेजी गई। परन्तु यह भी असफल रहा। अब बलबन ने स्वयं तुगरिल खान से निपटने का प्रण किया अपने पुत्र बुगरा खां को साथ लेकर एक बड़ी सेना के साथ बंगाल पहुंचा।  तुगरिल खां डरकर जाजनगर के जंगलों में छुप गया, लेकिन उसके साथी शेर अंदाज ने उसका पता बलबन को दे दिया। बलबन ने क्रूरतापूर्वक खां और उसके परिवार का कत्ल कर दिया। बुगरा खां को बंगाल राजयपाल नियुक्त कर बलबन दिल्ली लौट आया।

मंगोल समस्या का समाधान और बलबन की मृत्यु

मंगोल समस्या से निपटने के लिए बलबन ने सभी सीमावर्ती दुर्गों की मरम्मत कराई। कुछ नए दुर्गों का भी निर्माण कराया और उन पर शख्त पहरा बैठाया। बलबन ने मंगोलो को पराजित करने में सफलता प्राप्त कर ली , लेकिन उसको अपने पुत्र राजकुमार मुहम्मद की जान से हाथ धोना पड़ा। अपने पुत्र की मौत का सदमा बलबन को ऐसा लगा कि 1286 ईस्वी में उसकी भी मृत्यु हो गई। 

HISTORY OF INDIA
बलबन का मकबरा महरौली दिल्ली

 

बलबन की उपलब्धियां

तुर्क-ए-चलगानी का अंत – 

बलबन भलीभांतिजानता था की चालीस तुर्कों का दल कभी भी उसे शांति से शासन नहीं करने देगा, क्योंकि इल्तुतमिश से लेकर नासिरुद्दीन के शासनकाल तक उसने इन चालीस अमीरों के शासन में दखल को देखा था। इसलिए सबसे पहले बलबन ने इन चालीस तुर्कों के दल को नष्ट करने का प्रण किया।बलबन ने चालिसियों के दल सदस्यों मलिक बकबक, हैबत खां, अमीन खां आदि को कठोर दंड दिए जिसके कारण अन्य सदस्य भी शांत हो गए।

 जासूस व्यवस्था का संगठन

 बलबन ने शासन संचालन के लिए जासूस व्यवस्था के महत्व को समझा और एक कुशल व संगठित जासूस व्यवस्था की स्थापना की। जासूसों को अच्छा वेतन दिया सुर उन्हें प्रांतों के अध्यक्षों के नियंत्रण से मुक्त रखा।

भूमि अनुदानों का उन्मूलन


इल्तुतमिश के समय सैनिकों को उनकी सेवाओं के बदले दी गयी भूमि को पुनः वितरण कर पुराने अनुदानों को रद्द कर दिया। बलबन ने इमाद-उल-मुल्क को सेना का प्रबंधक नियुक्त किया। उसे सुरक्षा मंत्री या दीवान-ए-आरिज का पद दिया गया।  उसने सेना को संगठित कर कुशल बना दिया।

बलबन के राजपद का सिद्धांत

बलबन दैवी सिद्धांत में विश्वास करता था। उसने ‘ज़िल्ली इलाह’ या ईश्वर का प्रतिबिम्ब’ की उपाधि ग्रहण की। वह खलीफा के प्रति विशेष सम्मान रखता था और खलीफा की मृत्युपरांत भी सिक्कों पर उसका नाम खुदवाता रहा।

बलबन एक निरंकुश शासक था उसे दरबार में हंसना और संगीत बिलकुल पसंद नहीं था। बलबन अपना वंश एक प्राचीन तुर्की नायक, चरण के अफरासियाब से संबंधित मानता था।

 बलबन ने दरवार में सुल्तान के प्रति सम्मान प्रदर्शित करने हेतु—

  • सिजदा ( लेट कर नमस्कार करना )
  • पायबोस (पाँव का चुम्मन लेना) 

जैसी प्रथाओं का प्रचलन किया।  बलबन ने अपने दरबार का सम्मान बढ़ने के लिए नौरोज प्रथा प्रचलित की।

बलबन की लौह एवं रक्त की नीति

बलबन एक कठोर एवं निष्ठुर शासक था उसने अपने विरोधियों का अंत करने के लिए लौह एवं रक्त की नीति को अपनाया।  इस नीति का अर्थ कि उसने अपने विरोधियों को तलवार से क़त्ल किया और उनका रक्त बहाया। बलबन ने चालिसियों का दमन इसी नीति से किया।

निष्कर्ष 

इस प्रकार बलबन एक शक्तिशाली शासक सिद्ध हुआ जिसने एक गुलाम की हैसियत से अपना जीवन प्रारम्भ किया लेकिन वह बादशाह बना। उसने दिल्ली सल्तनत के खोये गौरव की पुनः स्थापना की। यद्यपि वह एक कठोर शासक था उसने अपने विरोधियों का बड़ी कठोरता से दमन किया सम्भवता यह समय की मांग हो। उसने अपने दरबार में ईरानी पद्धति  को लागु किया और एक वैभवशाली दरबार का गठन किया.


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