रूसी क्रांति का भारत पर प्रभाव: क्रांतिकारियों, महिलाओं और साहित्यकारों पर प्रभाव

रूसी क्रांति का भारत पर प्रभाव: क्रांतिकारियों, महिलाओं और साहित्यकारों पर प्रभाव

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Last updated on April 17th, 2023 at 03:15 pm

1917 की रूसी क्रांति से पूर्व अन्य सभी क्रांतियों में शोषक वर्ग की ही विजय हुई। इन क्रांतियों में एक शोषक वर्ग का स्थान दूसरे शोषक वर्ग ने ग्रहण कर लिया, किंतु 1917 की रूसी क्रांति के परिणामस्वरूप एक नया मजदूर वर्ग शासक के रूप में उभर कर आया, जिसने उत्पादन के साधनों को अपने हाथ में रखकर आधुनिक अर्थव्यवस्था को जन्म दिया। किंतु यह वर्ग जब तक दूसरे शोषित वर्गों की स्वतंत्रता के लिए लगातार नहीं लड़ता तब तक स्वयं भी पूर्ण स्वतंत्र कहलाने का अधिकारी नहीं था। इस महान क्रांति का अंतर्राष्ट्रीय धरातल पर यह प्रभाव पड़ा कि विश्व की क्रांतिकारी प्रक्रिया को पूंजीवाद से समाजवाद की ओर बढ़ावा मिला।
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रूसी क्रांति का भारत पर प्रभाव: क्रांतिकारियों, महिलाओं और साहित्यकारों पर प्रभाव

 रूसी क्रांति: भारत पर प्रभाव

रूस की क्रांति के नारों से यूरोप के मजदूर और किसानों को प्रथम विश्व युद्ध के कारण अपनी आर्थिक अवस्था को अधिक खराब होने से बचाने के लिए क्रांति में शामिल होने का आह्वान मिला और एशिया के गुलाम देशों के मजदूर और किसानों में भी अपने देश को स्वतंत्र कराने की भावना जागृत हुई। इससे विश्वयुद्ध का शीघ्र अंत हुआ तथा राजतंत्र और पूंजीवाद की नींव हिल गई। एशिया के देशों में विदेशी शासन से मुक्त होने का आंदोलन भी जोर पकड़ने लगा। रूसी क्रांति ने भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से अपनी सकारात्मक भूमिका का निर्वहन किया।

दो अंतर्राष्ट्रीय दो अंतरराष्ट्रीय घटनाएं जिन्होंनें पूरे विश्व को प्रभावित किया

1904-05 का रूस-जापान  युद्ध तथा 1917 की रूसी क्रांति—- ने भारत के स्वतंत्रता आंदोलन के स्वरूप और तरीकों को भी बहुत प्रभावित किया।  1904-05 के रूस- जापान युद्ध में जापान की विजय हुई। इंग्लैंड ने जापान की सफलता से प्रभावित होकर उससे मैत्री संधि की। जापान की इस विजय से एशिया के देशों में एक नई आशा की किरण जागी, साथ ही यह धारणा कि पश्चिमी शक्तियाँ अजय हैं यह भ्रम भी टूट गया।

भारत में स्वराज्य की आवाज बुलंद हुई और अंग्रेजी सरकार को भारी धक्का लगा, क्योंकि उसका विचार था कि यदि रूस जापान से इस युद्ध में जीत जाता तो अंग्रेजी शासन के लिए भारत में कोई राजनैतिक कठिनाई उत्पन्न न होती। इस समय अंग्रेजी सरकार यह समझती थी कि रूस की क्रांति से और अधिक कठिनाइयां उत्पन्न होंगी। भारत के स्वाधीनता आंदोलन पर रूस-जापान के युद्ध के कहीं अधिक प्रभाव रूस की 1917 की क्रांति का पड़ा जिसके परिणामस्वरूप भारतीय आंदोलनकारियों में एक प्रकार की आशा का संचार हुआ। वे भी सोचने लगे कि जिस प्रकार से रूस में कठोर जारशाही का अंत हुआ है उसी प्रकार भारत में भी इस क्रुर अंग्रेजी शासन का अंत संभव है।

विषय सूची

भारतीय जनता ने भी इस क्रांति का स्वागत बड़े जोर-शोर से किया। इस क्रांति से भारत में समाजवादी विचारधारा का श्रीगणेश हुआ। उस समय के प्रमुख राजनीतिक दल– अखिल भारतीय कांग्रेस और उसके प्रमुख नेताओं ने समाजवादी विचारधारा और उसके तरीकों को चाहे स्वतंत्रता आंदोलन में प्रयोग न किया हो किंतु वे इससे प्रभावित अवश्य हुए। इनमें लोकमान्य तिलक, लाला लाजपत राय, जवाहरलाल नेहरू और महात्मा गांधी प्रमुख हैं। इतना ही नहीं उग्रवादी और क्रांतिकारी नेताओं ने तो खुलकर इस क्रांति के विचार और तरीकों का समर्थन किया और उन्हें व्यावहारिक रूप देने का प्रयास भी किया।

सन 1917 से 1920 के समय में रूसीक्रांति का भारत के राष्ट्रीय आंदोलन पर अधिक  प्रभाव नहीं हुआ किंतु कुछ भारतीय नेताओं ने इस क्रांति  का समर्थन किया। भारतीय समाचार पत्रों एवं पत्रिकाओं में क्रांति के समर्थन में समाचार और लेख प्रकाशित हुए। भारतीय नेता अंग्रेजी सरकार से भारत के प्रति उनकी नीति को स्पष्ट करने की मांग कर रहे थे तथा शासन में सुधार की मांग की जा रही थी। अंग्रेजी सरकार को इन घटनाओं से भय उत्पन्न होने लगा।

तदुपरांत 1919 के कानून के अनुसार शासन मेंसुधार की व्यवस्था की गई तथा साथ-साथ सरकार ने रूसी क्रांति के प्रभाव सेभारतीयों को दूर रखने के लिए कड़े नियम भी बनाए। बोल्शेविक क्रांति ने न केवल अंग्रेजी सरकार के लिए बल्कि पूंजीपतियों और जमींदारों के लिए भी एक खतरा उत्पन्न कर दिया।

 श्रीमती एनी बेसेंट ने अंग्रेजी सरकार को चेतावनी दी  :   “सारे राष्ट्र के युवकों को अधिक समय तक दबाया नहीं जा सकता, रूस के जार ने इस प्रकार का व्यवहार किया तो उसका परिणाम क्रांति में बदल गया जिसकी आज सारा सभ्य समाज सराहना कर रहा है।”

मान्टेसक्यू ने अपने पत्रों के माध्यम से अंग्रेजी सरकार को भारत में रूसी क्रांति से होने वाले प्रभावों से अवगत कराया। उन्होंने सरकार को सुझाया कि सरकार को भारत के के प्रति एक निश्चित नीति अपनानी चाहिए। भारत-सचिव चेंबरलेन ने भी भारत में रूसी क्रांति के कारण होमरूल आंदोलन पर उसके प्रभाव से अंग्रेजी सरकार को सचेत किया।

 रूसी क्रांति का भारत पर प्रभाव

रूसी क्रान्ति का ब्रिटिश नौकरशाही पर प्रभाव

युद्ध में व्यस्तहोने के कारण अंग्रेजी सरकार ने मांटैस्क्यू के सुझाव पर ध्यान नहीं दियालेकिन भारत में अनेक अंग्रेजी अफसरों ने वायसराय को समझाया कि वे इंग्लैंडको बाध्य करें और सुझाएं कि यदि एक निश्चित नीति नहीं अपनाई गई और शासन में सुधार नहीं किया गया तो रूसी क्रांति से भारतीय जनता पर गहराप्रभाव पड़ेगा। अंग्रेज अफसरों का विचार था कि रूस की क्रांति के प्रभावभारत में होमरूल आंदोलन के लिए आग में घी का काम करेंगे और इस आंदोलन कोरोकना बहुत कठिन होगा। 

प्रारंभ में होमरूल आंदोलन अंग्रेजी न्याय के सिद्धांत पर आधारित था और स्वाधीनता आंदोलन के नेता संवैधानिक तरीके से स्वशासन चाहते थे, रूस की क्रांति के बाद इस आंदोलन के नेताओं का व्यवहार भी परिवर्तित हुआ और वे पहले से ज्यादा उग्र होकर स्वशासन की मांग करने लगे जिससे राष्ट्रीय आन्दोलन की दिश भी बदल गयी।

गृह सदस्य, क्रोडोकभी शासन में सुधार के समर्थक थे। उन्हेंनें कहा:राजनैतिक समझ और अनुभव हमें सिखाता है कि शक्ति का प्रयोग एक सीमा तक ही हो सकता है। आप इन आंदोलनों को सख्ती से नहीं दबा सकते, इनकी बातें रूस के तरीकों की नहीं होंगी बल्कि वही होंगी जैसे रूस ने पुराने तरीकों को खत्म किया है। जिस प्रकार से रूस की जनता ने रूसी नौकरशाही के तरीकों को खत्म क्या उसी प्रकार भारत की जनता अंग्रेज नौकरशाही के तरीकों का अंत कर देगी और महत्वपूर्ण क्रांतिकारी आंदोलन को हिंसात्मक दल का समर्थन मिलेगा एवं प्रेरणा मिलेगी, जैसा कि रूस में हुआ है।”

भारत में अक्टूबर क्रांति का समाचार प्रथम बार राइटर के एक डिस्पैच दिनांक 8 नवंबर, 1917 के माध्यम से आया। इसके अनुसार “लेनिन का स्वागत जनता ने हर्षोल्लास के साथ किया। अपने भाषण में लेनिन ने रूस के प्रजातंत्र के समक्ष तीन समस्याएं बतलाई— एक, युद्ध का तुरंत अंत होना; दूसरे मजदूरों में जमीन का विभाजन; तीसरे, आर्थिक कठिनाइयों का समाधान।” इन शब्दों को द बंगाली‘  ने 13 नवंबर, 1917 को छापा। तत्पश्चात ट्रिब्यूनने 16 नवंबर 1917 को तथास्वदेश मित्रने भी 20 नवंबर 1917 को लिखा : “रूस में उग्रवादियों के शासन में आने से विश्वयुद्ध मित्र राष्ट्रों के पक्ष में नहीं होगा।”

लेनिन के नेतृत्व में रूस की नई सरकार ने 16 नवंबर, 1917 को तथा 3 दिसंबर 1917 को रूस की जनता के अधिकारों की घोषणा की। भारत में अंग्रेज सरकार इन घोषणाओं से  चिंतित हुयी  और  प्रयत्न किया गया कि ये घोषणाएं  लिखित रूप से भारत में न पहुँच पाएं। दतुपरांत भारतीय  मामलों के राज्य-सचिव ने  वाइसराय को 7 दिसम्बर ,1917 को एक पत्र में इन  दस्तावेजोंका हवाला देते हुए सरकार को भारतीय जनता पर इनके प्रभावों से अवगत कराया। 

रूसी क्रांति का भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और उसके नेतृत्व पर प्रभाव 

रूस की क्रांति के प्रभाव  भारतीय जनता पर पड़ने प्रारम्भ हुए तथा भारतीय नेता अंग्रेजों की दमनकारी-निति की तुलना रूस के जार की शोषण-निति से  लगे। दिसम्बर 1917  के राजनैतिक सम्मलेन में भाषण देते हुए महात्मा गाँधी  कहा “सभाएं करने और प्रस्ताव पास करने का समय अब बीत चुका है। भाषण और सभाओं का अपना एक समय और स्थान होता है लेकिन ये एक राष्ट्र का निर्माण कर सकते हैं।” इस समय भारतीय नेताओं को वोल्शेविकवाद का अधिक ज्ञानन हो सका क्योंकि अंग्रेज सरकार भारतियों को रूस में हुयी घटनाओं से दूरऔर अन्धकार में रखना चाहती थी।

बॉम्बे क्रॉनिकलने 4 दिसंबर 1917 को लिखा , “वोल्शेविकवाद के विषय में हमारी धारणा स्पष्ट नहीं है… हम यह जानते हैं कि यदि वे अपने कार्यक्रमों में कुछ आकर्षक एवं वायदों की बातें नहीं रखते तो वे सफल नहीं हो सकते थे।” 

भारतीय क्रांतिकारी रूस की क्रांति से पहले ही विदेशों में अपना संपर्क बनाए हुए थे। रूस की क्रांति से प्रसन्न होकर दिसंबर, 1917 को अमेरिका से भारतीय नेशनलिस्ट पार्टी ने जदू गोपाल मुखर्जी के हस्ताक्षर तहत रूस की सरकार से यह अपील की : “क्रांतिकारी भारतीय प्रसन्न हैं कि रूस में एक सच्चे आदर्श के रूप में जनता की सरकार बनी है जो जनता के द्वारा चलेगी और जनता के हित में होगी। हमें खुशी है कि प्रथम बार राज्यों के इतिहास में ऐसी सरकार बनी है जो जनता के हित के लिए है। आज क्रांतिकारी भारत की स्थिति वैसी ही है जैसी कि रूस की 1905 में थी।••• स्वतंत्र रूस ने संसार के लोगों के लिए नया कार्यक्रम प्रस्तुत किया है। हमें विश्वास है कि स्वतंत्र रूस भारत की 35 करोड़ जनता के प्रति कभी विमुख नहीं होगा।”

अंग्रेजों की साम्राज्यवादी नीति के कारण  अप्रैल 1919 को तीसरा अफगान युद्ध छिड़ा। वायसराय लॉर्ड चेम्सफोर्ड ने इंपीरियल काउंसिल के बजट अधिवेशन में भाषण करते हुए युद्ध का उत्तरदायित्व बोल्शेविकवाद पर थोपा और असहयोग आंदोलन के नेताओं से अपील की  कि वे अपना आंदोलन वापस ले लें और बोलशेविकवाद के खतरे से एकजुट होकर लड़ें। महात्मा गांधी ने इसका विरोध किया और कहा ‘मैंने कभी भी बोल्शेविकवाद के खतरे को महसूस नहीं किया; कोई भी भारतीय सरकार इससे क्यों घबराती है?

जनवरी 1918 को राज्य-सचिव ने ने वायसराय को खबर दी कि बोल्शेविक मेनिफेस्टो में रूस ने सभी मित्र राष्ट्रों और उनकी जनता से अपील की है कि वे 10 दिन के भीतर ही शांति की व्यवस्था करें और अपने अधीनस्थ जनता विशेषत: भारतीय जनता को आत्मनिर्णय का अधिकार दें। वायसराय ने इन घोषणाओं एवं अपीलों को जनता तक न पहुंचने के उपायों की मांग की। इन सभी बंधनों के बावजूद यह समाचार भारत के पत्रों एवं पत्रिकाओं के माध्यम से जनता तक पहुंचने लगे।

इसी समय रूस की नई सरकार ने भारत की अपनी नीति को ‘ब्लू बुक’ नाम से प्रकाशित किया जिसमें इस बात का वर्णन था कि रूस की क्रांति साम्राज्यवाद को कैसे समाप्त कर सकती है। वायसराय ने यह आदेश दिया कि यह पुस्तक भारत में नहीं पहुंचने चाहिए और इसकी व्यवस्था भी की। अंग्रेजी सरकार के प्रयत्नों के बाद भी इस पुस्तक के खंड ‘भारतवासी’ (सिंध से प्रकाशित) नामक पत्र में जुलाई 1920 को प्रकाशित हुए। इन सभी घटनाओं से भारतीय जनता विशेषत: क्रांतिकारी अब भारत के लिए स्वशासन की मांग जोरों से करने लगे।

 अंग्रेजी सरकार के समक्ष अब रूस की भारत के प्रति नीति स्पष्ट हो गई। इसी समय रूस की नई सरकार ने जार के द्वारा दूसरे देशों से किए गए सभी अनुबंध और मसौदे रद्द कर दिए तथा परतंत्र देशों के लोगों को स्वतंत्रता आंदोलन की स्वीकृति दी। रूस की नई सरकार के लिए साम्राज्यवाद को खत्म करना प्रथम कर्तव्य था।

भारत अंग्रेजी साम्राज्य की रीड की हड्डी था। यदि भारत अंग्रेजी साम्राज्य से मुक्त हो जाता तो अंग्रेजी सरकार को पूरा खतरा हो सकता था। बोल्शेविक सरकार भी यह समझती थी कि जब तक भारत अंग्रेजों से स्वतंत्र न होगा तब तक रूस भी इंग्लैंड के जोखिम से दूर नहीं होगा।

इन सभी घटनाओं के कारण अंग्रेजी अफसरों ने इंग्लैंड की सरकार को सावधान किया और सुझाया कि यदि भारतीयों की उचित मांगों को नहीं माना गया तो रूस की क्रांति के प्रभाव भारत पर उसी प्रकार होंगे जैसे कि फ्रांस की क्रांति के प्रभाव यूरोप के देशों पर पड़े थे। कुछ एंग्लो-इण्डियन अफसरों का विचार था कि संवैधानिक तरीकों से भारत को शासन देने से अंग्रेजी साम्राज्य अधिक सुदृढ़ होगा अन्यथा भारतीय जनता रूसी क्रांति के प्रभाव में आकर ऐसा ना कर दे जैसा जैसा कि बोल्शेविकों ने रूस के जार के साथ किया है।

नए और क्रांतिकारी विचारों के कारण भारत के स्वतंत्रता आंदोलन को एक नई दिशा मिली। 1918 के अखिल भारतीय कांग्रेस के अधिवेशन में श्रीमती एनी बेसेंट ने पंडित मदन मोहन मालवीय की अध्यक्षता में स्वशासन का प्रस्ताव पास कराया। भारतीय नेता न तो मिंटो-मार्ले के सुधारों से संतुष्ट थे और न ही मोंटेग्यू-चेम्सफोर्ड योजना से। उनकी मांग थी कि वे अब स्वशासन करने योग्य हैं। इन सभी मांगों के उपरांत अंग्रेजी सरकार का मत था कि अभी सुधार के लिए जल्दी नहीं करनी है।

अतः सरकार ने शैलेट कमीशन की नियुक्ति की जिसका कार्य उन योजनाओं एवं षड्यंत्रों का पता लगाना थ, जो क्रांतिकारी विचार  रखते थे तथा उनको दबाने के लिए उपाय एवं नियम सुझाने थे। सरकार के अत्याचारों से लड़ने के लिए जनता का ध्यान स्वभवतः बोल्शेविक सिद्धांतों की ओर जाने लगा।

सरकार ने समाचार पत्रों पर अधिक नियंत्रण लगाया तथापि कुछ भारतीय समाचारपत्रों—अमृत बाजार पत्रिका, न्यू इंडिया, बॉम्बे क्रॉनिकल आदि—ने बोल्शेविक सिद्धांतों का खूब प्रचार एवं प्रसार किया। दूसरी और अंग्रेजी सरकार भी बोल्शेविकों के विरुद्ध भारत में जमकर प्रचार करती रही किंतु इसका प्रभाव सामान्य जनता पर नहीं पड़ा।

1920 में अंग्रेजी सरकार को संदेह हुआ कि भारत में बोल्शेविक प्रचार हेतु रूसी रूबल (रूसी मुद्रा) भेजा जा रहा है। अतः इसकी रोक के लिए एक उच्चस्तरीय अफसरों की बैठक में दो अफसरों को नियुक्त किया गया, जो इस कार्य पर रोक लगाएं। अंग्रेजी सरकार ने भारतीय राजाओं से भी साम्यवाद के प्रचार को भारत में रोकने के लिए मांग की।

भारतीय राजाओं ने, जो अंग्रेजी सरकार के आज्ञाकारी थे, इसे स्वीकार किया। सर रशब्रुक विलियम को सूचना अधिकारी नियुक्त किया गया और साम्यवादियों के विरूद्ध सामग्री तैयार करने को कहा गया। सरकार ऐसा प्रचार चाहती थी कि जिससे भारतीय जनता को अनुभव हो कि साम्यवाद धर्म-विरोधी है और रूस की नई सरकार भयानकऔर घृणित है। किंतु इसके साथ-साथ बोल्शेविकवाद के विरुद्ध सरकारी प्रचार का विरोध भारतीय समाचारपत्रों ने अपने लेखों में तथा आंदोलन के नेताओं ने अपने भाषणों में किया और सरकारी प्रचार को कोरा झूठ बताया। ‘स्वराज्य’ (बम्बई) दिसंबर 1920 के अनुसार  “यदि सरकार वास्तव में बोल्शेविकवाद को भारत में नहीं आने देना चाहती है तो उसे अपने वायदे पूरे करने चाहिए और अपनी नीति भी बदलनी चाहिए”

अंग्रेजी सरकार ने भारत पर रूस के आक्रमण का भय जनता में फैलाने का प्रयास किया और रॉलेट कानून तथा तीसरा अफगान युद्ध भी रूस के प्रचार की ही देन बतलाया । किन्तु तत्कालीन प्रमुख नेता बोल्शेविकवाद के पक्ष में थे जिसमें बालगंगाधर तिलक, बी०सी०पाल, लाला लाजपतराय, सी० आर० दास, सत्यमूर्ति, चमनलाल, ए० आर० रंगाचारी, लाला गोवर्धनदास, हसरत मोहानी, गणेश शंकर विद्यार्थी, रमाशंकर अवस्थी, हेमंतकुमार आदि उल्लेखनीय हैं। इन नेताओं का विचार था कि बोल्शेविकबाद अंग्रेजी सरकार की सुधार प्रक्रिया भारतीय जनता के लिए कहीं अधिक अच्छा है।

बी० सी० पाल का कहना था कि किसी व्यक्ति का उस वस्तु पर कोई अधिकार नहीं होना चाहिए जिसे वह अपनी मेहनत से पैदा नहीं करता। उन्होंने इंग्लैंड के मजदूरों के साथ सहयोग की बात की जो पूंजीवाद को अपना प्राकृतिक शत्रु मानते थे। श्रीपाल के अनुसार बोल्शेविकबाद का अर्थ व्यक्ति का वह अधिकार है जो व्यक्ति को स्वतन्त्र और सुखी जीवन प्रदान करता है,जिसमें पूंजीपति वर्ग और कथित उच्च वर्ग के द्वारा शोषण एवं अत्याचार नहीं होता है। 

तिलक ने भी अपने समाचार पत्र ‘केसरी’ के माध्यम से बोल्शेविकवाद के विरूद्ध सरकार के प्रचार का खंडन किया तथा लेनिन को एक महान चिंतक एवं मानव-प्रेमी बताया। मार्च 1920 में अजमेर में तिलक ने भारत पर रूसी हमले की संभावना को निराधार बताया और कहा, “व्यर्थ में सरकार सेना पर रूसी हमले के भय से अधिक खर्च कर रही है, बोल्शेविकवाद दूसरे देशों पर हमला और आधिपत्य इस प्रकार नहीं करते जैसे अंग्रेज करते हैं।

हिंदू और मुसलमानों के धार्मिक सिद्धांत बोल्शेविकों के समान हैं, उन्होंने बोल्शेविकों का स्वागत करना चाहिए।” तिलक ने समाजवाद की तुलना गीता के साथ करते हुए यह सिद्ध करने का प्रयास किया “कि अपनी जरूरत से ज्यादा रखी हुई वस्तु को दूसरों के काम में लाना चाहिए और जो व्यक्ति जरूरत से ज्यादा रखता है, वह पापी है।”

मोतीलाल नेहरू असहयोग आंदोलन को पहले पूंजीपतियों के विरुद्ध छेड़ना चाहते थे कि सरकार के विरुद्ध। उदारवादी नेता अपना पहला कर्तव्य स्वतंत्रता प्राप्ति समझते थे और फिर सर्वहारा वर्ग की भलाई। हसरत मोहानी कांग्रेस के सक्रिय सदस्य रहते हुए भी बोलशेविकवाद से प्रभावित थे, वे  बोल्शेविकवाद को जमीदार, पूंजीपति-विरोधी और सबको समान बनाने वाला मानते थे। वे इन्हीं सिद्धांतों को इस्लाम धर्म में भी देखते थे। ‘खिलाफत आंदोलन’ पर भी बोल्शेविकवाद का पर्याप्त प्रभाव पड़ा। हजारों की संख्या मुसलमान युवक हिंदुस्तान छोड़कर अफ़गानिस्तान होते हुए रूस पहुंचे।

प्रारंभ में यह आंदोलन तुर्की के खलीफा के पक्ष में था जिसे विश्व के मुसलमान श्रेष्ठ मानते थे। यह मुसलमान युवक ‘मुजाहर’ कहलाए। अफगानिस्तान और रूस में इन युवकों ने सैनिक और राजनीतिक शिक्षा प्राप्त की और रूस की क्रांति से बहुत प्रभावित हुए। ये कट्टर मुसलमान होते हुए भी क्रांति के  विचारों को ग्रहण करते गए किंतु तुर्की में कमालपाशा के आने के बाद यह आंदोलन भारत में लगभग समाप्त हो गया।

भारतीय स्वतंत्रत्रा-आंदोलन के नेता गांधी अपने अहिंसा के सिद्धांतों में हिंसा का मिश्रण नहीं चाहते थे। हिंसा मार्क्सवाद के सिद्धांत में प्रमुख थी। इसी कारण बहुत-से नेता गांधी के नेतृत्व में होने के कारण तथा दूसरे और बोल्शेविकवाद से प्रभावित होने के कारण अपने भाषणों में तो बोल्शेविकवाद के पक्ष में अवश्य बोलते थे किंतु व्यवहार में इसके सिद्धांतों का प्रयोग नहीं करते थे।

 विदेशों में भारतीय क्रांतिकारियों पर रूसी क्रांति का प्रभाव  

 रूसी क्रांति का प्रभाव भारतीय जनता एवं नेताओं पर ही नहीं पड़ा, बल्कि विदेशों में भी भारतीय क्रांतिकारी भारत की स्वतंत्रता हेतु सक्रिय रहे। रूस की क्रांति के प्रारंभिक दिनों में अंग्रेजी सरकार के सूत्रों से ज्ञात होता है कि इस समय भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के नेताओं और रूस के बीच सीधे संबंध नहीं थे, फिर भी विदेशों में भारतीय क्रांतिकारियों ने यूरोप में राजनैतिक परिस्थिति में परिवर्तन और इस विश्वास के कारण कि रूस की स्वतंत्रता विश्व में आजादी लाएगी, रूस की सरकार के साथ सीधे संबंध स्थापित किए। रूस की क्रांति का स्वागत  विदेशों में रहने वाले भारतीयों ने बड़े जोर-शोर से किया।

‘गदर पार्टी’ ने इस आंदोलन के तुरंत बाद भारतीय क्रांतिकारियों से अपील की कि वे रूस की क्रांति से प्रेरणा लें तथा रूस की जनता के समान उत्साहित होकर अंग्रेजों को भारत से निकालने की मांग करें। अमेरिका से रामनाथपुरी नामक क्रांतिकारी ने ‘रफीक-हिंद’ पत्र में एक कार्टून (व्यंगचित्र) में अंग्रेजों को शत्रु और रूस को भारत के मित्र के रुप में प्रस्तुत किया। विदेशों में भारतीय क्रांतिकारी रूस के क्रांतिकारियों से पहले ही संपर्क स्थापित कर चुके थे।

श्यामजी कृष्ण वर्मा, वीरेंद्र चट्टोपाध्याय, हरदयाल और तिरुमल आचार्य अंग्रेजों से भारत को स्वतंत्र कराने में रुसी तरीकों के समर्थक थे। उन्होंने रूस के क्रांतिकारी सन्फ्रॉस्की से पेरिस में बम बनाने के तरीकों की जानकारी प्राप्त की।

भारतीय स्वतंत्रता के उद्देश्य की पैरवी के लिए मैडम कामा और ए०आर० राणा ने स्टुटगार्ड के अंतर्राष्ट्रीय समाजवादी सम्मेलन में भाग लिया। इस सम्मेलन में रूस से लेनिन और अन्य क्रांतिकारी भी सम्मिलित थे।

रूस की क्रांति से कुछ पूर्व चट्टोपाध्याय और तिरुमल आचार्य ने ‘स्टॉकहोम’ में रूस के क्रांतिकारियों के सचिव के० एस० त्रिनोवस्की से भेंट की और उनसे तय किया कि वे रूस में भारतीय स्वतंत्रता के लिए प्रचार करेंगे। त्रिनोवस्की को रूस में भारत के स्वतंत्रता-आंदोलन के प्रचार के लिए 7000 क्रोम्स भी दिए गए।

त्रिनोवस्की ने, पेट्रोगार्ड जाकर, स्टॉकहोम में भारतीय क्रांतिकारियों को रूस में अपने प्रतिनिधि भेजने के लिए लिखा, परंतु जर्मन फॉरेन ऑफिस ने भारतीय क्रांतिकारियों को ऐसा करने से मना किया और रूस में भारतीय स्वतंत्र के प्रचार के लिए सहायता भी बंद कर दी। जर्मन फॉरेन ऑफिस का कहना था कि त्रिनोवस्की जर्मन साम्राज्यवाद का विरोधी है।

भारतीय क्रांतिकारी नेताओं ने जर्मनी की इस बात को स्वीकार किया। फिर भी वे अब स्वतंत्र रूप में भारतीय स्वतंत्रता के समर्थन में प्रचार की व्यवस्था करते रहे। 1918 में राजा महेंद्र प्रताप ने भी रूस के साथ संपर्क स्थापित किए। रूप में अपने भाषण में उन्होंने कहा कि “स्वतन्त्र रूस को जर्मनी के साथ सहयोग करके भारत को स्वतंत्र कराना चाहिए।” 

दिसंबर 1918 में बर्लिन कमेटी के विघटन के बाद भारतीय क्रांतिकारियों ने पेट्रोगार्ड में रूसी प्रचार के केंद्र में कार्य करना प्रारंभ किया। हसन साहिद सुहारावर्दी, अब्दुल जगाहर,  अब्दुल सत्तार, दलीपसिंह, महेंद्र प्रताप, वीरेंद्र चट्टोपाध्याय और त्रिमुल आचार्य इनमें प्रमुख थे।

1919 के आरंभ में बोल्शेविक नेताओं ने एशिया में समाजवाद की विजय के लिए अपने प्रचार को बढ़ाना आरंभ किया। “इसके लिए ब्रेविन नामक नेता की नियुक्ति की गई तथा प्रचार के लिए उपयुक्त सामग्री और धन दिया गया।।”

भारत में 1919 में एक विशेष राजनीतिक चेतना की लहर भी प्रभावित थी। आम व्यक्ति और राष्ट्रीय आंदोलन के नेता अंग्रेजी सरकार से असंतुष्ट हो गए थे।  मांटेग्यू-चेम्सफोर्ड रिपोर्ट, जर्नल डायर के जलियांवाला बाग के अत्याचार तथा अंग्रेजी सरकार की युद्ध के दौरान वायदों को पूरा न करना इस असंतोष के प्रमुख कारण थे। इस असंतोष के कारण आम जनता के द्वारा आंदोलन और छुट-पुट घटनाएं होती रही, किंतु अंग्रेजी सरकार इनको बोल्शेविकवाद का प्रभाव मानती रही। 

इसी समय अफगानिस्तान के अमीर ने भारतीय क्रांतिकारियों के साथ मिलकर भारत को अंग्रेजी अत्याचार से मुक्त कराने की चेष्टा की किंतु राष्ट्रीय आंदोलन का नेतृत्व गांधी के हाथों में होने के कारण इस घोषणा का प्रभाव भारतीय जनता न पड़ सका। गांधी ने कहा : “मैं भारत को अफगानिस्तान के आक्रमण से नष्ट होता देख सकता हूं किंतु अफगान हमले से भारत के मान को खोकर आजादी नहीं चाहता।     

 तृतीय अफगान युद्ध के बाद पुनः विदेशों में भारतीय क्रांतिकारियों ने अपने संबंध रूस के साथ बढ़ाने का प्रयास किया। 1919 में मास्को में अनेक विदेशी भारतीय क्रांतिकारी आकर रहने लगे। अफगानिस्तान के अमीर के गैर- सरकारी दूत के रूप में बरकतउल्ला भी रूस पहुंचे। रूप में उन्होंने अपने लेख में लिखा: “भारतीय क्रांतिकारी न तो समाजवादी हैं और न ही साम्यवादी बल्कि उनका राजनैतिक कार्यक्रम अंग्रेजों को भारत से निकालना और इस कार्य में रूस की सहायता प्राप्त करना है”।

इस बीच बरकतउल्ला, अब्दुल सत्तार, तिरुमल आचार्य और इब्राहिम ने लेनिन से भेंट की। लेनिन ने अपने बातचीत में भारतीय क्रांतिकारियों को अपने दूत शूरितज़ के साथ काबुल जाने के लिए कहा। अतः 26 दिसंबर, 1919 को ये भारतीय क्रांतिकारियों शूरितज के साथ काबुल पहुंचे। प्रारंभ में अफगान अमीर का सहयोग इन क्रांतिकारी को मिलता रहा। किंतु जब कांग्रेस सरकार ने इनकी गतिविधियों की शिकायत अफगान अमीर से की तो अफगान अमीर भी उनसे विमुख हो गया।

अंग्रेजी सरकार ने अफगान अमीर को इन क्रांतिकारियों के अफगानिस्तान में निवास पर भी आपत्ति प्रकट की। कुछ ही समय पश्चात काबुल में इन क्रांतिकारियों के मतभेद के कारण दो वर्गों में बँट गए। एक वर्ग में अब्दुल जगाहर, सुहरावर्दी और तिरुमल आचार्य थे जिनका समर्थन शूरितज़ कर रहे थे। इन्होंने अपने दल का नाम ‘इंकलाब-ए-हिन्द रखा। दूसरे वर्ग में महेंद्र प्रताप और अब्दुल सत्तार थे, जिन्होंने अपने दल का नाम ‘इंडियन रिवॉल्यूशनरी एसोसिएशन’ रखा।

19 जुलाई 1920 में ताशकंद में दूसरे अंतरराष्ट्रीय कम्युनिस्ट कांग्रेस में एम०एन० राय, अब्दुल जगाहर, तिरुमल आचार्य और शफीक ने भाग लिया। इस कांग्रेस में लेनिन और एम. एन. राय के बीच मतभेद रहा लेनिन  चाहते थे कि भारतीय क्रांतिकारियों को भारतीय बुर्जुआ वर्ग के साथ मिलकर राष्ट्रीय आंदोलन चलाना चाहिए।  लेकिन इसके विरोधियों का कहना था कि राष्ट्रीय बुर्जुआ वर्ग किसी भी समय अपने आर्थिक व राजनीतिक लाभ के लिए साम्राज्यवादी शक्तियों से समझौता कर सकते हैं।  वे चाहते थे कि राष्ट्रीय आंदोलन  नेतृत्व सर्वहारा  वर्ग के हाथ में होना चाहिए। 

 इस कांग्रेस में पूर्वी देशों की जनता को स्वतंत्र कराने का भी निर्णय लिया गया।  दिसंबर 1920  बाकू में पूर्वी देशों के क्रांतिकारियों का एक सम्मेलन हुआ।  इसमें तुर्की, चीन , भारत पर्शिया (ईरान) और अफगानिस्तान के प्रतिनिधियों ने भाग लिया।  इस सम्मेलन में भारत की स्वतंत्रता के विषय में अनेक भाषण हुए।  अवनी मुखर्जी ने श्री एम. एन. राय का प्रतिनिधित्व किया और बाकू  में बहुत से मुजाहर छात्रों को संगठित किया। 

भारत के समाचार पत्र ‘स्वदेश मित्र’ (मद्रास) ने 9 दिसंबर 1920 में तथा ‘हिंद’ (मद्रास) ने भी बाकू  के सम्मेलन का प्रचार भारत में किया किंतु अंग्रेजी सरकार ने इस सम्मेलन को असफल बताया।  एम. एन. राय तथा उनके साथियों ने रूस की सहायता से 17 अक्टूबर 1920 में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना रूस की तथा बाकू और ताशकंद में इसके केंद्र खोले गए।  इन केंद्रों के क्रांतिकारियों को सैनिक प्रशिक्षण दिया गया।  अनेक भारतीय सैनिक प्रथम विश्व युद्ध के बाद  एशिया से रूस पहुंचे और क्रांतिकारी संगठनों में सम्मिलित हो गए। 

1921 में चट्टोपाध्याय ने विदेशों में रहने वाले सभी क्रांतिकारियों के एकजुट होकर भारत में अंग्रेजी शासन के विरुद्ध लड़ने का कार्यक्रम बनाया जिसके अनुसार 25 मई 1921 को रूस की सहायता से विदेशों में रहने वाले क्रांतिकारियों की सभा आयोजित की गई।  इस समय एम. एन. राय भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का निर्माण रूस में कर चुके थे और रूस की  सरकार के अधिक निकट समझे जाते थे। 

चट्टोपाध्याय और एम. एन. राय में व्यक्तिगत और कार्यक्रम संबंधी मतभेद होने के कारण विदेशों से आए क्रांतिकारी इस सम्मेलन में भाग लेने में सफल न हो सके।  एम. एन. राय का कहना था कि कम्युनिस्टों को राष्ट्रवादियों  की सहायता नहीं करनी चाहिए।। श्री राय भारत में साम्यवाद (कम्युनिज़म) को बढ़ावा देना चाहते थे जबकि अन्य क्रांतिकारी पहले अंग्रेजों को भारत से निकालना चाहते थे।  इन्हीं कारणों से विदेशों में भारतीय क्रांतिकारियों की  शक्ति बिखरती रही और वे एक होकर रूस  से सहायता प्राप्त ना कर सके। 

 रूसी क्रांति का भारतीय मजदूर वर्ग पर प्रभाव 

इस समय बोल्शेविक विचारों का सबसे अधिक प्रभाव भारतीय मजदूर वर्ग पर पड़ा तदोपरांत मजदूर वर्ग  संगठित होना प्रारंभ हुआ।  मजदूर वर्ग में राजनैतिक वर्ग चेतना का जन्म हुआ एवं मजदूर अब रूस की क्रांति से प्रभावित होकर अपने महत्व को समझने लगे।  मजदूरों में बोल्शेविकवाद के बढ़ते प्रभाव का वर्णन भारत सरकार के विदेश विभाग के ‘नोट ऑन बोल्शेविज्म’ 20 अगस्त 1920 के पत्रों से साबित होता है। 

1918 से पूर्व भारत में मजदूर वर्ग संगठित नहीं था, जहां कहीं भी मजदूर हड़ताल करते थे दूसरे वर्गों का सहयोग और सहानुभूति मजदूरों के सहयोग को पसंद नहीं करती थी।  मुंबई, बंगाल के प्रांतों में भी मजदूरों के संगठन बने और 1919 में ‘अहमदाबाद कपड़ा मजदूर यूनियन’ और ‘इंडियन सीमन्स यूनियन’ की स्थापना हुई।  इन यूनियनों की स्थापना के बाद मजदूर और अधिक संगठित हुए तथा उन्होंने अब पूंजीपतियों के विरुद्ध हड़तालें आरंभ कीं।  

1920 में मुंबई की करीब 80 मिलों के डेढ़ लाख मजदूरों ने हड़ताल में भाग लिया।  जून 1920 में रेलवे तथा दूसरे विभागों में भी हड़तालें  हुईं।  मिलर के नेतृत्व में लाहौर के रेलवे मजदूरों ने हड़ताल की जिसका प्रभाव रावलपिंडी, लुधियाना, अमृतसर, गुजरावालां, वजीराबाद के रेल मजदूरों पर भी पड़ा। 

चमन लाल और लाला लाजपत राय ने मजदूर संगठनों के लिए जनता से पैसा भी इकट्ठा किया। 1920 21 में पूरे देश में मजदूरों ने अनेक बार हड़तालें  कीं  तथा नए मजदूर संगठनों का भी निर्माण किया।  बंगाल में जे.आर. राय ने ‘केंद्रीय मजदूर संघ’ की स्थापना, सी. आर. दास, बी.सी.पाल और हेमंत कुमार सरकार ने ‘बंगाल मजदूर यूनियन’ और कानपुर में गणेश शंकर विद्यार्थी ने ‘मजदूर सभा’ की स्थापना की।  इन सभी मजदूर हड़तालों  और संगठनों का प्रभाव सरकारी कर्मचारियों, पुलिसकर्मियों, चाय मजदूरों, लोहा कारखानों और प्रेस के मजदूरों पर भी पड़ा। 

बी.सी.पाल, चमनलाल, बी.जी. तिलक, सत्यमूर्ति और लाला लाजपत राय ने रूस की क्रांति में मजदूरों के योगदान और उसके बाद उनकी स्थिति का प्रचार जोर-शोर से मजदूरों में किया।  लाला लाजपत राय तिलक का कहना था कि भूमि का बंटवारा, मुनाफे का बंटवारा और विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार ही भारत में स्वराज दिला सकता है।  अपने भाषणों में वे अपने मजदूरों की रूस के मजदूरों से तुलना रूस के मजदूरों से करते थे।  

मजदूरों के संगठित होने तथा बोल्शेविकवाद के प्रभाव से सरकार चिंतित थी, अतः मोंटेग्यू ने वायसराय को अपनी सूचना में मजदूरों के बढ़ते हुए असंतोष और बोल्शेविकवाद के प्रभाव से अवगत कराया। सन 1919 में अंतरराष्ट्रीय मजदूर सम्मेलन (वाशिंगटन) में श्री वाडिया और श्री एस. एन. जोशी ने भाग लिया तथा अंग्रेज मजदूर नेताओं से संपर्क बढ़ाए।

21 मार्च 1920 में मद्रास में मजदूरों का ‘अखिल भारतीय सम्मेलन’ हुआ जिसमें पूरे देश से 3,000 मजदूरों ने भाग लिया। 1920 में आगरा में भी इसी प्रकार का सम्मेलन हुआ जिसमें मजदूरों की हालत में सुधार की मांग का प्रस्ताव पास किया गया।

      असहयोग आंदोलन इस समय अपनी चरम सीमा पर था, मजदूर इस आंदोलन से जुड़ना चाहते थे लेकिन महात्मा गांधी मजदूरों को सक्रिय रूप से राष्ट्रीय आंदोलन में नहीं लाना चाहते थे। गांधी मजदूरों के शोषण के विरोधी थे लेकिन मजदूरों के संगठनों का राष्ट्रीय आंदोलन में कोई महत्व नहीं मानते थे।

दूसरी ओर सी. आर. दास, बी. सी. पाल और लाला लाजपत राय मजदूर आंदोलन को राष्ट्रीय आंदोलन से जोड़ना चाहते थे। 1918 से 1921 के बीच भारत में मजदूर आंदोलन और हड़तालें भारी संख्या में हुईं। लेकिन एक प्रभावशाली नेतृत्व, एक वैज्ञानिक, राजनैतिक, आर्थिक एवं सामाजिक कार्यक्रम और विचारधारा के अभाव के कारण मजदूर आंदोलन कमजोर पड़ता गया। कम्युनिस्ट पार्टी और सोशलिस्ट पार्टी की स्थापना के बाद यह मजदूर यूनियनें इन दलों से जुड़ती गईं।

भारत में क्रांतिकारियों पर रूसी क्रांति का प्रभाव

अन्य वर्गों के समान भारतीय क्रांतिकारियों ने भी रूसी क्रांति के समाचार को खुशी से ग्रहण किया, वे इस क्रांति के विचारों और कार्यक्रम को जानने के लिए उत्सुक हुए तथा रूसी नेताओं से संपर्क स्थापित करने के प्रयास करने लगे। भारत में क्रांतिकारियों का विचार था कि भारत की स्वतंत्रता क्रांति के रास्ते से ही लाई जा सकती है। वे न केवल हथियारों के माध्यम से अंग्रेजों को भारत से निकालकर स्वतंत्र करना चाहते थे बल्कि एक नई सामाजिक व्यवस्था की स्थापना भी करना चाहते थे, इस कार्य के लिए उन्हें उचित प्रेरणा रूस की क्रांति से मिली।

उनकी क्रांति पूंजीवाद और वर्ग भेद को समाप्त करके उन लाखों गरीबों और भूखों को सुख और समृद्धि देने के लिए थी जो देशी और विदेशी शोषण के पंजों में फंसे हुए थे। वे सर्वहारा वर्ग के के अधिनायकवाद में विश्वास करते थे। क्रांतिकारियों का विचार था कि भारत और दूसरे देशों में पहले आतंकवाद क्रांति में बदलेगा और फिर क्रांति स्वतंत्रा में, जो सामाजिक राजनीतिक और आर्थिक होगी।

क्रांतिकारियों के एक संगठन ‘हिंदुस्तान एसोसिएशन ऑफ पेसिफिक कोस्ट’ का जन्म 1913 में अमेरिका में हुआ था जो बाद में गदर पार्टी के नाम से मशहूर हुआ। प्रारंभ में गदर पार्टी (क्रांतिकारियों का प्रमुख दल) में लगभग 10,000 सदस्य थे। यह पंजाब के किसान थे, इनमें से अधिकतर अमेरिका और यूरोप के देशों में मजदूरी के लिए लाए गए थे। ये क्रांतिकारी विदेशों में हुई स्वतंत्रता की लड़ाइयों से प्रेरणा लेकर भारत को स्वतंत्र करवाना अपना लक्ष्य मानते थे।

रौलट कमेटी की रिपोर्ट के अनुसार “इस पार्टी का उद्देश्य विद्रोह के द्वारा अंग्रेजों को भारत से निकालकर उसके स्थान पर भारतीय जनता का शासन स्थापित करना था”।

 आरंभ में क्रांतिकारी अपने उद्देश्य में सफल न हो सके और उन्हें अपने कार्यकलाप की बहुत अधिक कीमत चुकानी पड़ी। लगभग 100 सदस्यों को फांसी दी गई, 41 को गोली मारी गई, और 100 को अंडमान की जेल में भेजा गया।

1917 में रूसी क्रांति के कारण रूस में जब नई सामाजिक व्यवस्था बनी तो भारतीय क्रांतिकारियों का विश्वास और अधिक मजबूत हुआ और अब वे इस क्रांति और उसके विचारों के विषय में जानने के लिए और अधिक उत्साहित हुए।

गदर पार्टी के प्रमुख नेता बाबा गुरमुख सिंह के अनुसार “जब गदर पार्टी के प्रयत्न विफल हुए तो उसने अपनी ताकत और कमजोरी को समझने का विचार किया। उसी समय अक्टूबर की क्रांति हुई अतः पार्टी ने स्वभावतः रूस की क्रांति की सफलता को समझने और इसके अनुभव को जानने के लिए अपने सदस्यों को रूस भेजा”।

भारत में रूसी क्रांति के विषय में साहित्य बहुत कम था क्योंकि अंग्रेजी सरकार का इस पर प्रतिबंध लगा हुआ था और जो भी समाचार भारत आता वह अंग्रेजी अख़बार एजेंसी ‘रायटर’ के माध्यम से आता था जो खबरों को निष्पक्ष रूप से पेश नहीं करती थी।

इस दल के दूसरे प्रमुख नेता सचिंद्र नाथ सान्याल जिन्हें 1915 में अंडमान जेल भेजा गया था, एम. एन. राय के घनिष्ठ मित्रों में से थे। प्रथम विश्व युद्ध के बाद सरकार ने उन्हें छोड़ दिया था। उन्होंने अपने संबंध एम.एन. राय से, जो उस समय रूस में थे, कायम रखे। 1925 में सान्याल को काकोरी कांड में आजीवन कारावास मिला। 1924 में ‘कानपुर बोल्शेविक षड्यंत्र’ मुकदमे में भी अनेक क्रांतिकारियों को 10 से 15 साल की कड़ी कैद की सजा दी गई।

‘हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन’ जिसका जन्म 1928 में दिल्ली के फिरोजशाह कोटला मैदान में हुआ था, के प्रमुख सदस्यों को जो समाजवादी विचारधारा में विश्वास रखते थे अपने विचारों को पूरा करने के दौर में भिन्न-भिन्न प्रकार से राष्ट्र की बलिवेदी पर कुर्बान होना। पड़ा भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को फांसी मिली, चंद्रशेखर इलाहाबाद में पुलिस से मुठभेड़ में मारे गए, भगवती चरण वोहरा रावी नदी के किनारे भगत सिंह को छुड़ाने के लिए बम का प्रयोग जांचने की घटना में मर गए, जतिन दास भूख हड़ताल में शहीद हुए, ठाकुर महावीर सिंह अंडमान की जेल में अंग्रेज सरकार के नियमों के उल्लंघन में मारे गए।

भगत सिंह और उनके साथियों पर समाजवाद और रूसी क्रांति का प्रभाव अमिट रहा। वे कम्युनिस्ट न होते हुए भी समाजवाद, रूस और लेनिन में विश्वास रखते थे। दिल्ली सेशन जज द्वारा आजन्म कैद की सजा के फैसले के खिलाफ लाहौर कोर्ट में अपनी अपील की सुनवाई के समय भगत सिंह ने कहा “क्रांति संसार का नियम है, वह मानवीय प्रगति का रहस्य है। लेकिन उसमें रक्तरंजित संघर्ष बिल्कुल लाजमी नहीं है और न उनमें व्यक्तिगत प्रतिहिंसा की ही कोई जगह है। वह बम और पिस्तौल का संप्रदाय नहीं है।”

“हम न तो कारतापूर्ण हिंसात्मक उपद्रव करने वाले हैं और इसलिए न तो अपने देश के लिए लांछन हैं जैसा कि नामधारी समाजवादी दीवान चमनलाल हमारे बारे में कहते सुने गए हैं और ना हम कुछ ‘सिरफिरे’ ही हैं जैसा कि लाहौर का ‘ट्रिब्यून’ और कुछ दूसरे लोग यकीन यकीन करना चाहेंगे।  हम बड़ी विनम्रता से से इतिहास, अपने देश की परिस्थितियों, मानवीय आकांक्षाओं के गंभीर विद्यार्थी होने से ज्यादा का दावा नहीं करते। हम पाखंड से घृणा करते हैं।

हमारा असली विरोध उसी संस्था के खिलाफ है, जिसने जन्म से अपनी निरर्थकता ही नहीं, बल्कि उपद्रव करने की अपनी भारी शक्ति भी प्रदर्शित की है। हमने उस पर जितना भी ज्यादा मनन किया, उतनी ही गहराई से हमें यह विश्वास होता गया कि वह संस्था संसार के आगे भारत के दीनता और असहायता दिखाने के लिए ही पनप रही है और वह एक गैर जिम्मेदार तथा स्वेच्छाचारी सत्ता की लाठी के जोर पर चलने वाले शासन की ही प्रतीक है।”

जेल के सुपरिटेंडेंट के नाम पत्र में उन्होंने लिखा “भारतीय संघर्ष तब तक चलता रहेगा जब तक मुट्ठी भर सत्तारूढ़ लोग अपने फायदे के लिए आम जनता के श्रम का शोषण करते रहेंगे। शोषक चाहे भारतीय हो चाहे भारतीय हों, चाहे ब्रिटिश या चाहे दोनों ही मिलकर खड़े हो, संघर्ष को कोई भी नहीं रोक सकेगा।”

1925 में लाहौर में भगत सिंह और भगवतीचरण ने नौजवान भारत सभा की स्थापना की ओर घोषणापत्र के माध्यम से नौजवानों को बलिदान के लिए आह्वान किया, “तरुण अपने होठों पर मुस्कान लिए अत्यधिक अमानुषिक यंत्रणाएँ  सह सकते हैं, और बिना किसी हिचक के मृत्यु की आंखों में आंखें डाल सकते हैं, क्योंकि मानव प्रगति का समूचा इतिहास ही तरुण-तरुणियों के रक्त से लिखा गया है।  

घोषणापत्र  में पूछा था, “क्या तुम नहीं जानते कि तुर्क लोगों ने कैसे आश्चर्यजनक काम किए हैं? क्या तुम रोज ही नहीं पढ़ते कि चीनी तरुण क्या कर रहे हैं? क्या रूस की मुक्ति के लिए रूस के तरुणों ने ही अपने जीवन की बलि नहीं चढ़ाई? पिछली  शताब्दी में सैकड़ों-हजारों तरुण केवल समाजवादी पर्चे बांटने पर ही या दोस्तोएवस्की  की तरह केवल समाजवादी बहस-मुबाहिसे की एक समिति के सदस्य-भर होने से साइबेरिया में निर्वासित कर दिए गए थे।  बार-बार उन्होंने दमन के तूफानों का सामना किया था।  लेकिन उन्होंने हिम्मत नहीं हारी” भगतसिंह अपने अंतिम दिनों में मजदूरों और किसानों को संगठित करने की समस्या के बारे में ही ज्यादा-से-ज्यादा सोचते थे।  

लाहौर सेंट्रल जेल के सुपरहिट सुपरीटेंडेंट के नाम पत्र में उन्होंने और उनके दो साथियों ने लिखा था “अति शीघ्र अंतिम संघर्ष के आरंभ की दुंदुभी बजेगी।  उसका परिणाम निश्चयात्मक होगा।  साम्राज्यवाद और पूंजीवाद अपनी अंतिम घड़ियां गिन रहे हैं।  हमने संघर्ष में हाथ बंटाया था और हमें अपने कार्य पर गर्व है।  

 दिल्ली की अदालत में भगत सिंह ने कहा “समाज का वास्तविक पोषक मजदूर है।  जनता का प्रभुत्व मजदूरों का अंतिम भाग्य है।  इन आदर्श और विश्वासों के लिए हम हर उस कष्ट का स्वागत करेंगे जिसकी हमें सजा दी जाएगी।  हम अपने आपको इसी क्रांति की वेदी पर होम करने लाए हैं, क्योंकि इतने गौरवशाली उद्देश्य के लिए कोई भी बलिदान बहुत बड़ा नहीं है। ….. समाज के सबसे आवश्यक तत्व होते हुए भी उत्पादन करने वालों या मजदूरों से उनके शोषक उनकी मेहनत का फल लूट लेते हैं और उनको अपने बुनियादी अधिकार से वंचित कर देते हैं। 

एक ओर तो सभी के लिए अनाज पैदा करने वाले किसानों के परिवार भूखों मरते हैं सारे संसार के बाजारों को सूत जो जुटाने वाला जुलाहा अपना और अपने बच्चों का तन ढकने के लिए भी पूरा कपड़ा नहीं जुटा पाता, शानदार महल खड़े करने वाले राज लोहार और बढ़ाई झोपड़ियों में ही बसर करते हैं और मर जाते हैं और दूसरी ओर पूंजीपति शोषक,,,, अपनी सनक पर ही करोड़ों रुपए बहा देते हैं।  

       “क्रांति से हमारा अर्थ है—अंत में समाज की एक ऐसी व्यवस्था की स्थापना जिसमें इस प्रकार के जुल्म का भय ना हो और जिनमें मजदूर वर्ग के प्रभुत्व को मान्यता दी जाए और उसके फलस्वरुप विश्व संघ पूंजीवाद के बंधनों, दुखों या युद्धों की मुसीबतों से मानवता का उद्धार कर सके”।  

 21 जनवरी 1930 को लेनिन की पुण्यतिथि के दिन भारत के वीर स्वाधीनता सेनानी भगत सिंह ने अदालत के कमरे से ही, जहां उन्हें तथा उनके दो साथियों को मौत की सजा सुनाई गई थी, अन्य अभियुक्तों के साथ मिलकर मॉस्को  एक तार भेजा।  उसमें कहा गया था “लेनिन की पुण्यतिथि के दिन हम उन सभी को अपना हार्दिक अभिवादन प्रेषित करते हैं , जो महान लेनिन के आदर्शों को साकार करने में जुटे हुए हैं।  रूस में जो महान प्रयोग किया जा रहा है, हम उसकी  सफलता की कामना करते हैं।  हम अंतरराष्ट्रीय मजदूर आंदोलन की आवाज में अपनी आवाज मिलाते हैं। सर्वहारा विजय होगा पूंजीवाद को मुंह की खानी पड़ेगी साम्राज्यवाद मुर्दाबाद।”

उपर्युक्त तथ्यों से स्पष्ट हो जाता है कि भगत सिंह एवं उनके साथी पूंजीवाद तथा साम्राज्यवाद विरोधी मजदूर क्रांति के समर्थक थे। वे रूस की क्रांति और उसके विचारों से परिचित थे और उन विचारों की पूर्ति के लिए ही उनका संघर्ष मृत्यु तक जारी रहा।

रूस की क्रांति का भारतीय महिलाओं पर प्रभाव

रूस की क्रांति के प्रभाव भारत में न केवल क्रांतिकारियों मजदूर और राजनीतिक संगठनों एवं राष्ट्रीय नेताओं पर ही पड़े बल्कि भारतीय महिलाएं भी इसके प्रभाव से अछूती  न रह सकीं।  अंग्रेजी सरकार ने भारत में रूस की क्रांति और बोल्शेविक सरकार के विरुद्ध जमकर प्रचार किया, उसने रूस की नई सरकार की धर्म विरोधी, भगवान-विरोधी और परिवार में नैतिकता को समाप्त करने वाली बतलाया।  इसी कारण भारतीय महिलाऐं रूस की क्रांति के 10 वर्ष बाद तक इस क्रांति की घटनाओं, विचारधारा उद्देश्य से अनभिज्ञ रही।
इसी बीच के समय में बहुत सारे भारतीय क्रांतिकारी सोवियत रूस से वापस भारत आ चुके थे।  वह अपने साथ क्रांति के संबंध में प्राथमिक जानकारी  और साहित्य भी लाए थे, यह साहित्य में रूस की महिलाओं का क्रांति में योगदान का वर्णन था।
     
1917 की क्रांति में रूसी महिलाओं के योगदान और त्याग से प्रभावित होकर भारतीय महिलाओं और नौजवान लड़कियों ने अब भूमिगत क्रांतिकारी दलों को सहयोग देना प्रारंभ किया।  बंगाल उस समय क्रांतिकारियों का गढ़ समझा जाता था।  यहीं पर साम्राज्यवाद से प्रभावित होकर प्रथम महिला सुहासिनी गांगुली कम्युनिस्ट दल की  सदस्य बनीं  और जेल भी गयीं। 
एक नौजवान लड़की— कल्पना दत्त जो “चटगांव और आर्मरी रेड” केस में शामिल थी, लेनिन व रूसी क्रांति से बहुत प्रभावित थी।  जेल जाने पर इन महिलाओं ने रूसी क्रांति से संबंधित साहित्य को पढ़ा और अधिक पढ़ा।  इनके साथ कमला चटर्जी, इंदु सुधा और शांति घोष, ने भी जो बाद में शांतिदास के नाम से जाने गयीं, कम्युनिस्ट दल की सदस्यता ग्रहण की।
कुछ  और महिलाएं थीं  जो जेलों  में रहने के बाद कम्युनिस्ट पार्टी की सदस्य तो नहीं रही लेकिन क्रांतिकारी साहित्य को पढ़ती रहीं।  इनमें प्रमुख थी– विमल प्रोतिमा, कल्याणी भट्टाचार्य, इंदुमती सिन्हां।  बंगाल के अतिरिक्त पंजाब, दिल्ली और मध्य प्रांतों में तथा भगत सिंह और दूसरे क्रांतिकारियों के साथ भी बहुत सारी महिलाएं थीं , जो रूस की क्रांति से प्रभावित थीं। 
ये सभी भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में अग्रणी रहीं। इनमें प्रमुख थीं — दुर्गावती बोहरा (सांडर्स केस), प्रकाशवती पाल।  बम्बई, कोलकाता और अहमदाबाद के मजदूर आंदोलन में तथा 1928 की ऐतिहासिक ‘गिरनी कामगार यूनियन’ के कार्यक्रमों और आंदोलनों में उस्तानी डांगे, सुहासिनी  नांबियार, मीनाक्षी सरदेसाई ने महत्वपूर्ण कार्य किया।

लेबर पार्टी, बोल्शेविक पार्टी, सीपीआई तथा अन्य मजदूर संघों में भी भारतीय महिलाओं ने रूसी क्रांति से प्रभावित होकर मजदूर आंदोलनों और स्वतंत्रता आंदोलनों में भाग लिया।  इनमें प्रमुख थीं — सुधा राय, चांदो बीवी, मैत्रायी बोस, अंबुताई बाहरी, प्रभावती दासगुप्ता। 1930 के आसपास विदेशों से भारतीय छात्रों ने रूसी साहित्य को भारत में पढ़ने के लिए कुछ संगठनों की स्थापना की। 
ऐसी महिलाएं जो गांधी के नेतृत्व में जेलों में गईं, वे भी जेल में रूसी क्रांति का अध्ययन करती थीं।  कुछ ऐसी महिलाएँ  जो समाजवादी दलों में नहीं थी लेकिन फिर भी समाजवाद का अध्ययन करती थीं और रूस की क्रांति से प्रभावित थीं।  उनमें कमलादेवी चट्टोपाध्याय, मनीबेल कारा, सत्यवती देवी और पूर्णिमा बनर्जी आदि प्रमुख थीं।  
जब भारतीय महिलाओं को पता चला कि अब रूस में महिलाएं पुरुषों के साथ और समान रूप से कारखानों, स्कूलों और संसद तथा अस्पतालों में काम कर रही हैं तो उनमें भी चेतना जागृत हुई।  यूरोप की उदार शिक्षा और रूसी महिलाओं के विषय की जानकारी ने भी भारतीय महिलाओं में महिलाओं के अधिकारों के आंदोलन को आगे बढ़ाया।
रामेश्वरी नेहरू ने जो महिलाओं के अधिकारों के आंदोलनों की नेता कही जाती हैं, 1924 में पुरुषों के समान महिलाओं के अधिकार की मांग करते हुए  रूस की महिलाओं के उदाहरण पेश किये।  1932 में रामेश्वरी नेहरू स्वयं सोवियत रूस गयीं तथा अंत तक वहां पर महिलाओं की स्वतंत्रता और समानता की सराहना करते रहीं।

सरोजिनी नायडू भी रूस में अपने मित्रों के माध्यम से रूसी महिलाओं के विषय में जानकारी प्राप्त करती रहीं।  अरूणा आसफ अली ने राजनीति में प्रवेश रूस की क्रांति से प्रभावित होकर ही किया।  अन्य अनेक भारतीय महिलाएं भी जो सक्रिय रूप से राजनीति में तो प्रवेश न कर सकीं पर उन दूसरी महिलाओं की  समर्थक थीं जो रूस की क्रांति का समर्थन खुले रूप से करती थीं।

भारत में कम्युनिस्ट और मार्क्सवादी संगठनों का उदय

1920 से 1935 के  समय राष्ट्रीय आंदोलन अपनीं  चरम सीमा पर था। इसी समय भारत में अनेक मजदूर संगठनों एवं आंदोलनों का जन्म हुआ।  रूस में समाजवादी क्रांति के उपरांत विभिन्न देशों में कम्युनिस्ट और मार्क्सवादी संगठनों का जन्म और विकास प्रारंभ हुआ।  भारत में भी विभिन्न कम्युनिस्ट संगठनों ने मिलकर 1925 में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना की।  कम्युनिस्ट पार्टी के उदय से राष्ट्रीय आंदोलन में काफी सहयोग मिला जिसके परिणामस्वरूप जनता में राजनीतिक चेतना का विकास हुआ और राष्ट्रीय आंदोलन को उग्रवादी एवं एक निश्चित दिशा मिली।


भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने पूर्ण स्वतंत्रता का कार्यक्रम तैयार किया जो साम्राज्यवाद और सामंतवाद विरोधी था जहां एक ओर भारतीय कम्युनिस्टों ने राष्ट्रीय आंदोलन में साम्राज्यवाद से लड़ाई लड़ी वहीं दूसरी ओर जनता में समाजवादी विचारधारा का भी प्रचार और प्रसार किया।  कम्युनिस्टों के कई विचारों को दूसरे राष्ट्रीय- प्रजातांत्रिक संगठनों ने भी ग्रहण किया।  1921 में हसरत मोहानी ने अहमदाबाद के कांग्रेस अधिवेशन में भारत की ‘पूर्ण स्वतंत्रता’ की मांग का प्रस्ताव रखा, जो उस समय तो पास न हो सका, लेकिन बाद में कांग्रेस नें  इसे स्वीकार किया।
    

अजय घोष के अनुसार “अक्टूबर क्रांति का भारतीय जनता पर एक प्रमुख प्रभाव यह हुआ कि भारत में समाजवाद का प्रचार बड़े पैमाने पर हुआ।”     

भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी अपने अनेक प्रयासों के बावजूद आम जनता और सभी मजदूरों का समर्थन प्राप्त न कर सकी।  इसके प्रमुख कारण थे :(1 ) अंग्रेजी सरकार ने कम्युनिस्टों को अनेक मुकदमों में (पेशावर षड्यंत्र केस 1922-24), कानपुर षड्यंत्र केस 1924, मेरठ षड्यंत्र केस 1929-33, काफी लंबे समय तक जेल में रखा जिसके कारण कम्युनिस्ट नेता जनता के जनता के संपर्क में अधिक न रह सके। (2)  कमयुनिस्ट नेता कांग्रेस पार्टी को एक बुर्जुआ पार्टी मानते थे। 

कांग्रेस पार्टी का प्रभाव जनता में अधिक होने के कारण आम जनता कम्युनिस्टों के इस आरोप को पूरी तरह समझ नहीं पाई। (3) कम्युनिस्ट नेताओं ने राष्ट्रीय आंदोलन के समय कुछ भूलें भी की  जिनके कारण भी जनता इनके अधिक निकट न आ सकी। (4) कम्युनिस्ट पार्टी से नेताओं की प्रेरणा का प्रमुख स्रोत इंग्लैंड और रूस की कम्युनिस्ट पार्टी थी। 

यही वजह थी कि उपनिवेशवाद-विरोधी संघर्ष के दौरान यह राष्ट्रीय मनोवृत्ति को पहचान नहीं पाई  और उसके खिलाफ गई। (5) कम्युनिस्ट नेताओं द्वारा महात्मा गांधी और सुभाष चंद्र बोस पर आक्षेप लगाने के कारण भी भारतीय जनता कम्युनिस्ट नेताओं से प्रभावित नहीं हुई।  1928 में कम्युनिस्ट इंटरनेशनल की नीतियों  में परिवर्तन के कारण भारतीय कम्युनिस्ट अब किसी दूसरे दल के साथ मिलकर कार्य करने को तैयार नहीं थे।  इतना ही नहीं वे भारत के अन्य उदार,अनुदार सभी दलों और नेताओं की आलोचना करने लगे।

 भारत के प्रमुख नेताओं पर रूसी क्रांति का प्रभाव

 गाँधी जी पर प्रभाव 

 इस युग में स्वतंत्रता आंदोलनों का नेतृत्व का प्रायः  महात्मा गांधी करते थे।  गांधी मुलत:  हिंसात्मक क्रांति के विरोधी थे और सत्य को एक ही सिक्के के दो पहलू मानते थे।  यदि कोई उद्देश्य हिंसात्मक साधन से प्राप्त किया गया है तो गांधी इसका विरोध करते थे चाहे साध्य कितना ही सफल क्यों ना  हो।

रूस की क्रांति के संबंध में उन्होंने कहा  “जहां तक बोल्शेविकवाद  का संबंध हिंसा और भगवान को नकारने का है, इस बात से मुझे घृणा  होती है।  मैं अल्प और हिंसात्मक सफलता में विश्वास नहीं रखता हूं।  वे  बोल्शेविक मित्र जो मेरे प्रति ध्यान रखते हैं उन्हें यह समझ लेना चाहिए कि मैं उनके उद्देश्य के प्रति चाहे अधिक सद्भावना रखता हूं और उनके भले उद्देश्य की प्रशंसा भी करता हूं मेरे विचार हिंसात्मक तरीकों के बिल्कुल विरोधी हैं चाहे लक्ष्य कितना ही अच्छा क्यों न हो”।

 गांधी ने स्पष्ट रूप से कहा “रूसी कम्युनिस्म  जो जनता पर थोपा गया था भारतीय जनता के लिए असंगत है”।

रूसी क्रांति में हिंसा और बड़े उद्योगों को अधिक महत्व दिया गया था, गांधी इन के कट्टर विरोधी थे यही कारण है कि वे इस क्रांति से प्रभावित होते हुए भी इसके सिद्धांतों को राष्ट्रीय आंदोलनों में व्यावहारिक रूप न दे सके।  इतना ही नहीं, गांधी कम्युनिस्ट राज्यों की अधिनायकवादी सरकारों के भी विरोधी थे।  उन्होंने स्पष्ट शब्दों में ऐसी सरकार की निंदा की, “ऐसे राज्य में व्यक्ति का शरीर भी अपना नहीं होता। जब मैं रूस की ओर देखता हूं जहां उद्योगीकरण  अपने चरमोत्कर्ष पर पहुंच गया है वहां का जीवन मुझे आकर्षित नहीं”।

क्रांति के साधनों के विरुद्ध होते हुए भी गांधी रूस  की जनता के त्याग और लेनिन के नेतृत्व से प्रभावित हुए थे।  उन्होंने कहा था “बोल्शेविकवाद का उद्देश्य निजी संपत्ति की  संस्था को समाप्त करना है। यह आर्थिक क्षेत्र में संग्रह न करने के नैतिक आदर्श को लागू करना ही है और यदि जनता स्वयं अपनी मर्जी से इस आदर्श को स्वीकार कर ले अथवा शांतिपूर्ण ढंग से समझा-बुझाकर इसे लागू किया जा सके तो फिर क्या कहना।

यह निर्विवाद तथ्य है कि बोल्शेविकवाद के पीछे असंख्य स्त्री और पुरुषों के पवित्र त्याग हैं जिन्होंने इस आदर्श की मूर्ति के लिए सर्वस्व न्योछावर कर दिया।  यह आदर्श जिसके पीछे लेनिन जैसे महान व्यक्तित्व का त्याग एवं पवित्र भावना है व्यर्थ नहीं जा सकता, त्याग का अनुपम उदाहरण हमेशा के लिए उद्भासित रहेगा तथा ज्यों-ज्यों समय व्यतीत होगा उसे अधिक पवित्र बनाएगा”।  गांधी लेनिन को एक महान मानव प्रेमी और चिंतक भी मानते थे।

जवाहर लाल नेहरू पर प्रभाव

 अन्य शोषित देशों की तरह भारत में समाजवादी विचारधारा के उदय का रूस की बोल्शेविक क्रांति 1917 से घनिष्ठ संबंध है।   रूस की की इस राज्य क्रांति के प्रभाव से भारत अछूता नहीं रह सका।  मार्क्स के सिद्धांतों ने भारत के राष्ट्रवादियों को भी प्रभावित किया।  कांग्रेस में समाजवादी विचारधारा को लाने का मुख्य श्रेय जवाहरलाल नेहरू को है। 

1927 में ब्रासेल्स में यूरोपीय जातियों का सम्मेलन आयोजित किया गया।  सोवियत संघ और यूरोप के अन्य समाजवादी नेताओं के प्रयास से इस सम्मेलन का आयोजन हुआ था।  भारतीय कांग्रेस की ओर से जवाहरलाल नेहरू उसमें प्रतिनिधि के रूप में शामिल हुए थे।

पंडित नेहरू दो-चार दिन तक ही सोवियत रूस में रहे, लेकिन एक अल्पावधि में सोवियत राज्य व्यवस्था से ही वे काफी प्रभावित हुए और समाजवाद में उनका विश्वास जमने लगा।

1927 में जवाहर लाल नेहरू रूस की यात्रा से जब भारत लौटे तो अनेक छात्र-संगठनों और आम जनता में नेहरू से रूस के बारे में जानकारी प्राप्त करने की उत्सुकता पैदा हुई।  अनेक अवसरों पर नेहरू ने अपने रूस के संस्मरण को जनता को बतलाया।  यह भाषण उस समय ‘हिंदू’ और ‘यंग इंडिया’ में भी प्रकाशित हुए। उन्होंने कहा “यह शिक्षाप्रद है कि उन व्यक्तियों के जीवन का अध्ययन किया जाए जो क्रांति की प्रणेता थे, जिन्होंने अराजकता में शांति के बीच एक नए  तथा मजबूत रूस  का निर्माण किया। 

देश में बहिष्कृत लोग, जिन्हें सैनिक मामलों का ज्ञान नहीं था, जिन्होंने महान तथा विदेशी सेनाओं का संगठन किया, दूसरे देश के कूटनीतिज्ञों  के संबंध में अनुभवहीन, व्यापार व शासन के अनुभव के बिना उन्होंने उस विशाल शासन तंत्र का संचालन किया जो समस्त उत्पादन तथा वितरण को नियंत्रित करता था।  इन महान लोगों में से खासकर लेनिन के बारे में जानना वांछनीय होगा”।

जेल से नेहरू ने अपनी पुत्री इंदु (इंदिरा गांधी) को एक पत्र में रूस की क्रांति और भारतीय नेताओं पर उसके प्रभाव को बताते हुए “लिखा जिस वर्ष (1917) तुम पैदा हुए वह वर्ष इतिहास के स्मरणीय वर्षों में से एक है जबकि एक महान नेता ने— जिसका हृदय गरीबों के प्रति प्रेम व सहानुभूति से भरा था— अपनी जनता को इतिहास का एक अनुपम एवं अविस्मरणीय अध्याय लिखने को प्रेरित किया।  उसी वर्ष जब तुम पैदा हुईं  लेनिन  ने एक महान क्रांति का शुभारंभ किया।  जिसने रूस व साइबेरिया के चेहरे को बदल दिया। आज उसी प्रकार भारत में एक अन्य महापुरुष है जिसका हृदय पीड़ित लोगों के प्रति असीम प्यार से भरा है और जो उनकी मदद करने को उत्सुक है और जिसने हमारी जनता को अतुलनीय त्याग एवं महान संकल्प के लिए प्रेरित किया है ताकि वे पुनः स्वतंत्र हो सके और भूखे गरीब शोषित लोग अपने जुए को उतार फेंक सकें।  बापू जी अभी जेल में है लेकिन उनके संदेश का जादू लाखों भारतीय नर-नारियों के दिल तक पहुंचता है और यहां तक कि छोटे बच्चे भी अपने-अपने घरों से निकलकर भारत की आजादी के सिपाही बन रहे हैं।  हिंदुस्तान में आज हम इतिहास का निर्माण कर रहे हैं और तुम तथा मैं भाग्यशाली हैं कि यह घटनाएँ  हमारी आंखों के सामने घट रही हैं और हम स्वयं इस महान नाटक में थोड़ा-बहुत हिस्सा ले रहे हैं।

नेहरू रूस की क्रांति और उसके बाद की आर्थिक प्रगति से अत्यधिक प्रभावित थे।  कम्युनिस्ट न होते हुए भी वे समाजवादी विचारों के समर्थक थे उन्होंने लिखा “जब बाकी सारी दुनिया आर्थिक मंदी के चंगुल में थी और कुछ मायनों में पीछे जा रही थी सोवियत देश में हमारी आंखों के सामने एक नवीन विश्व का निर्माण हो रहा था।  महान लेनिन का अनुसरण कर रूस भविष्य की ओर देख रहा था तथा सोच रहा था कि क्या होना चाहिए।  जबकि दूसरे देश अतीत के बोझ में दबे प्राचीन काल के बेकार भग्नावशेष को सुरक्षित रखने में अपना समय व्यतीत कर रहे थे।  सोवियत शासन के मध्य एशिया के पिछड़े इलाकों की तरक्की की रिपोर्ट से मैं  खासकर प्रभावित हुआ।  कुल मिलाकर मैं उस पक्ष में था कि सोवियत संघ की उपस्थिति और उदाहरण अंधेरी और निराशामय दुनिया में एक हौसला बढ़ाने वाली बात थी।

1936 में पंडित नेहरू को पुनः यूरोप जाने का अवसर मिला और इस बार फिर अनेक समाजवादी-साम्यवादी नेताओं  से उनकी मुलाकात हुयी। फलतः समाजवादी विचारधारा में उनका विश्वाश और दृढ़  गया। स्वदेश लौटने पर उन्होंने खा ‘कांग्रेस आज भी भारत में पूरी तरह लोकतन्त्र लाना चाहती है और उसी के लिए लड़ती है। साम्राजयवाद के विरुद्ध है और राजनैतिक तथा सामाजिक ढांचे में बड़े-बड़े परिवर्तनों की कोशिश में है। मेरी आशा   है कि घटनाओं के प्रवाह से समाजवाद आ जायेगा,क्योंकि मुझे ऐसा लगता है कि भारत  आर्थिक बीमारी का सिर्फ वही एक इलाज है”।     

1936 के कांग्रेस के लखनऊ अधिवेशन की अध्यक्षता करते हुए अपने भाषण में जवाहरलाल नेहरू ने जोरदार शब्दों में रूस की क्रांति का समर्थन किया और समाजवादी योजना और उसके उद्योग से प्रभावित होकर एक योजना आयोग की स्थापना भी की।  इस समय की कांग्रेस पार्टी के कार्यक्रम में व्यक्ति की स्वतंत्रता  और फासीवाद एवं साम्राज्यवाद का अंत प्रमुख थे।

रविंद्र नाथ टैगोर पर प्रभाव

 महान कवि रविंद्र नाथ टैगोर ने 1927 में रूस की यात्रा की।  अपने ‘लेटर फ्रॉम एशिया’ में उन्होंने रूस की प्रगति का वर्णन करते हुए लिखा कि “यदि मैंने उन्हें अपनी आंखों से नहीं देखा होता तो मैं कभी विश्वास नहीं करता कि मात्र एक दशक में उन लोगों ने न केवल जहालत और अपमान के गर्त से सैकड़ों हजारों लोगों को बाहर निकाला बल्कि उन्होंने लोगों के अंदर मानव गरिमा का भी विकास किया है उनके सभी प्रयास इसी प्रकार दूसरे जनगण को लाभ पहुंचाते हैं”।

रविंद्र नाथ टैगोर न केवल अपने रूस की यात्रा के दौरान रूस की प्रगति से प्रभावित हुए बल्कि अपने जीवन के अंतिम क्षणों में अपने अंतिम संदेश में उन्होंने कहा रूस ने जिस शक्ति से रोगों और अनभिज्ञता से लड़ाई लड़कर गरीबी और अज्ञानता को दूर किया है उससे एक बड़े द्वीप के मुख से शोषण के चिन्हों को पोंछ दिया है।  इसने एक ऐसी सभ्यता को जन्म दिया है जिसमें वर्ग-भेद और वर्ण-भेद नहीं है, मैं इस देश की शीघ्र उन्नति को देखकर बहुत प्रसन्न हूं।

मोतीलाल नेहरू पर प्रभाव

 सन 1927 में मोतीलाल नेहरू ने भी रूस की यात्रा की।, इस यात्रा के दौरान वे रूस की प्रगति से बहुत प्रभावित हुए।  1928 में विधानसभा में गृह सदस्य द्वारा कम्युनिस्टों के षड्यंत्रों को रोकने के विषय में बिल पर बहस करते हुए उन्होंने कहा “भारत में ब्रिटिश सभ्यता के 150 वर्षों के बाद सिर्फ़ 6 फ़ीसदी आबादी शिक्षित है जबकि 10 वर्ष के बोल्शेविक शासन ने निरक्षरता को करीब-करीब समाप्त कर दिया है”।

जब मोतीलाल जी रूस  से वापस लौटे तो एक व्यक्ति ने उनसे पूछा कि क्या क्रेमलिन अब भी कायम है उसके उत्तर में मोतीलाल जी ने कहा “क्रेमलिन न केवल बरकरार है बल्कि उसमें बहुत सुधार कर दिया गया है और ऐसा लगता है मानो वह कल ही बनकर तैयार हुआ है”।

सुभाष चंद्र बोस पर प्रभाव

सुभाष चंद्र बोस भी जवाहरलाल नेहरू के समान रूस की क्रांति और उसकी आर्थिक प्रगति के समर्थक थे। हरिपुरा में फरवरी 1938 के अखिल भारतीय कांग्रेस के 51 वें अधिवेशन में भाषण में उन्होंने कहा “1917 में जारशाही  साम्राज्य ढह  गया और उसके ढेर  से सोवियत संघ का उदय हुआ अभी भी वक्त है कि ब्रिटेन रूस के इतिहास से सबक ले क्या वह ऐसा करेगा।— ?

“लेकिन क्या ब्रिटिश साम्राज्य का एक साहसिक कदम उठाकर अपने-आपको मुक्त राष्ट्रों के संघ  में परिवर्तित कर सकता है? इस प्रश्न का उत्तर ब्रिटेन की जनता पर निर्भर है जो भी हो एक बात निश्चित है ऐसा परिवर्तन तभी संभव होगा— जब ब्रिटेन की जनता स्वयं अपने देश में स्वतंत्र हो।  तब यह तभी हो सकता है जब ब्रिटेन एक समाजवादी राज्य बने। 

ब्रिटेन के पूंजीपति शासक वर्ग तथा उपनिवेशों के बीच एक अटूट संबंध है, जैसा कि लेनिन काफी पहले कहा था, “कई राष्ट्रों की गुलामी के कारण ब्रिटेन के प्रतिक्रियावादी पनपते हैं और ताकतवर होते हैं।” ब्रिटेन के कुलीन तंत्र में बुर्जुआ वर्ग जिंदा है इसका कारण यह है कि वे समुद्रपार उपनिवेशों का  शोषण करते हैं। 

उपनिवेशों  की आजादी से निसंदेह ब्रिटेन के पूंजीपति शासक वर्ग को भारी धक्का लगेगा और उस देश में समाजवादी शासन की स्थापना की राह खुलेगी। अतः  यह साफ हो जाना चाहिए कि जब तक उपनिवेशवाद का अंत नहीं हो जाता तब तक ब्रिटेन में समाजवादी व्यवस्था असंभव है और जो लोग भारत के राजनीतिक आजादी के लिए लड़ रहे हैं  ब्रिटेन की जनता की आर्थिक मुक्ति के लिए भी संघर्ष कर रहे हैं।

मजदूर किसान पार्टी का उदय

भारत में राष्ट्रीय लोकतांत्रिक क्रांति को लाने का कार्य तीन प्रमुख वर्गों ने किया— मजदूर वर्ग, किसान वर्ग, और छोटे व्यापारी इन तीनों वर्गों के मिले-जुले दल को किसान मजदूर पार्टी के नाम से जाना जाता था।  यह दल भारत में शीघ्र समाजवाद को नहीं लाना चाहता था और न ही इसने समाजवाद को अपने कार्यक्रम का मुख्य अंग माना। 

इस दल के कुछ नेताओं ने चाहे व्यक्तिगत रूप से अपने भाषणों में अवश्य ही समाजवाद को लाने की बात कही हो किंतु इस दल की मुख्य मांग भारत में राष्ट्रीय क्रांति के माध्यम से स्वतंत्रता और लोकतंत्र की स्थापना करना थी।  इस दल की नीति और बंगाल मजदूर-किसान पार्टी की नीति एक ही थी जिसमें अंग्रेजों से भारत को पूर्णत: स्वतंत्र कराना शामिल था।  इस दल ने भारत के विभिन्न भागों में मजदूरों और किसानों को संगठित किया तथा अंग्रेजी साम्राज्यवाद के विरुद्ध हड़तालें की और जेलों में यातनाएं उठाईं ।

 भारतीय बुद्धिजीवियों एवं लेखकों पर रूसी क्रांति का प्रभाव

भारतीय नेता स्वतंत्रता की लड़ाई में केवल अक्टूबर क्रांति से ही प्रभावित नहीं हुए बल्कि रूसी साहित्य का प्रभाव भारतीय बुद्धिजीवी वर्ग पर गहराई से देखा जा सकता है।  मदाम कामा और श्यामजी कृष्ण वर्मा के मैक्सिम गोर्की  से सीधे संबंध थे।  लेनिन ने भी 1960 में अंग्रेजी शासन के विरुद्ध भारतीय मजदूरों के संघर्ष पर एक लेख लिखा।  रूसी क्रांति के बाद अंग्रेजी सरकार के कठोर प्रतिबंधों के विपरीत भी भारतीय भाषा में रूसी क्रांति के विषय में लेख, नाटक एवं  पुस्तकें लिखी गयीं। 
इनमें प्रसिद्ध थे— मई 1919 में ‘ललिता’ नामक हिंदी पत्रिका में छपे ‘प्रजातंत्र का विकास’ ‘कम्युनिस्म’ नामक लेख,  डॉ. सुधेंदुबोस का ‘रूस की स्थिति’ नामक लेख (1919),   इसी समय रामाशंकर अवस्थी का ‘रूस की  राज्यक्रांति’ (1920), माता सेवक पाठक ने ‘राज्य संबंधी सिद्धांत’ (1920) , रमाशंकर अवस्थी ने ‘बोल्शेविक जादूगर’ (1921),  सोमदत्त वेदालंकार ने ‘रूस का पुनर्जन्म’ (1921), विशंभर नाथ जिंजा ने ‘ रूस के युगांतर’ (1922) और राहुल सांकृत्यायन ने ‘बोलगा से गंगा तक’ पुस्तकें लिखी।
  •  अंग्रेजी में—— डांगे, गांधी व  लेनिन (1921), ‘कृष्णराव’ (1922)
  •  बांग्ला में——- फणि  भूषण घोष, ‘लेनिन’ (1921)
  • मराठी में——- सीताराम साखते सामाजिकवाद (1921)
  • उर्दू में———– मौलवी बरकतउल्ला बोल्शिज़म और इस्लाम (1919)
कविता के क्षेत्र में भी मराठी कवि,  जैसे आनंद तल्लानेकर , अनिल कृष्णनागराज और मुक्तिबोध की रचनाओं में रूसी क्रांति के विचारों की साफ़ झलक दिखाई देती थी।  फ्रीडम ऑफ़ सोवियत यूनियन के माध्यम से भारत के प्रमुख नगरों में सोवियत फ़िल्मों व  नाटकों का प्रचार भी जोरो से हुआ।

भारत के स्वाधीनता आंदोलन में न केवल भारतीय जनता एवं  नेता रूस  से प्रेरणा लेते रहे बल्कि दूसरी ओर  सोवियत रूस और क्रांति के पिता डब्ल्यू ई.लेनिन  भी भारत के प्रति विशेष रुचि से लिखते और बोलते रहे। 
राष्ट्रीय प्रश्न के संबंध में आलोचनात्मक टिप्पणियां, राष्ट्रों के आत्मनिर्णय के अधिकार के बारे में समाजवादी क्रांति राष्ट्रों का आत्मनिर्णय का अधिकार, आत्मनिर्णय विषयक, वहस के निष्कर्ष, मार्क्सवाद के विदुषीकरण और आर्थिक साम्राज्यवाद के बारे में वे बराबर लिखते रहे। 
1916 में लेनिन ने भारतीयों की भी चर्चा करते हुए लिखा “हम मंगोलों, पारसियों, भारतियों, मिस्रियों आदि से घनिष्ठता बढ़ाने और एकजुट होने के लिए भरसक प्रयत्न करेंगे।  हम समझते हैं कि ऐसा करना हमारा कर्तव्य और हमारे हित में भी है, अन्यथा यूरोप में समाजवाद टिक  नहीं पाएगा। 
 
 1916 में जर्मनी के विरोध में लिखा—-“इस द्वेषपूर्ण  प्रसन्नता का कारण समझना मुश्किल होगा।  जर्मन बुर्जुआ भारत में अंग्रेजों के खिलाफ आंदोलन उभारकर और उनके विरुद्ध जनता का असंतोष उभारकर युद्ध में हुई अपनी क्षति की पूर्ति करने की आशा में है।  यह आशा निश्चय ही मूर्खों की आशा है, क्योंकि एक विदेशी भाषा में दूर बैठे हुए और वह भी यदा-कदा किसी क्रमबद्ध तरीके से नहीं बल्कि सिर्फ युद्ध के ही दौरान, करोड़ों की आबादी वाले एक अनोखे राष्ट्र के जीवन को प्रभावित करने की कोशिश करना कोई गंभीर बात नहीं कही जा सकती। 
वस्तुतः  जर्मन साम्राज्यवादी बुर्जुआ भारत पर प्रभाव डालने की अपेक्षा, खुद अपने को आश्वासन देने, जर्मन जनता को बेवकूफ बनाने और उसका ध्यान अपने घरेलू समस्याओं से हटाकर दूसरी ओर लगाने का प्रयास कर रहा है।
  
तीसरे दशक के शुरू में स्वाधीनता आंदोलन के विकास के स्वर को देखते हुए लेनिन ने भारत को एशिया के सभी देशों में सर्वप्रथम स्थान दिया।  1921 में उन्होंने लिखा “ब्रिटिश भारत इन देशों में सबसे आगे है भारत में क्रांति उसी अनुपात में बढ़ रही है जिस अनुपात में एक ओर  औद्योगिक और रेलवे सर्वहाराओं की संख्या बढ़ रही है और दूसरी ओर अंग्रेजों का जघन्य आतंक बढ़ रहा है और जो अब प्रायः हत्याकांडों (अमृतसर), सार्वजनिक रूप से कोड़े लगाने आदि का सहारा लेने लगे हैं। 
1920 में लेनिन ने भारतीय देशभक्तों को एक संदेश भेजा, जिसमें उन्होंने भारतीय राष्ट्रीय स्वाधीनता संग्राम के विकास के अनेक महत्वपूर्ण पहलुओं का उल्लेख किया था।  यह पहलू थे महान अक्टूबर क्रांति के विचारों का प्रभाव और भारत के स्वाधीनता संघर्ष का वीरतापूर्ण स्वरूप भारतीय मजदूरों तथा किसानों का जागरण; उनमें संगठन, अनुशासन तथा संयम  की आवश्यकता; हिंदू-मुसलमान एकता की आवश्यकता और विश्व के अन्य भागों में मेहनतकशों के साथ अंतरराष्ट्रीयतावादी एकता का महत्व। 
 
भारत जैसे देशों में राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन के विकास के प्रश्नों पर लेनिन  के दृष्टिकोण का परिचय उनके द्वारा एम. एन. राय की ‘अतिरिक्त थीसिस’ में किए गए संशोधनों से भी मिलता है।  उदाहरण के लिए लेनिन ने उनमें से राय  की उस प्रस्तावना  को हटा दिया जिसमें पूंजीवादी-जनवादी राष्ट्रीय आंदोलन के महत्व को नकारा गया था और मेहनतकशों के वर्ग-संघर्ष को उसके मुकाबले में रखा गया था। 
लेनिन ने इस तत्व की ओर बारंबार ध्यान आकर्षित किया कि पूर्व के देशों में, जिनमें भारत जैसे देशों में शामिल पूंजीवाद के विकास तथा मजदूर वर्ग के आविर्भाव के बावजूद अधिसंख्य मेहनतकश किसान हैं, जो राष्ट्रीय  उत्पीड़न और औपनिवेशिक शोषण के अलावा ‘मध्ययुगीन दमन’ और ‘मध्ययुगीन शोषण’ से भी पीड़ित हैं।  इसलिए हर राष्ट्रीय आंदोलन केवल पूंजीवादी-जनवादी आंदोलन ही हो सकता है”। 
 

 निष्कर्ष 

लेनिन के नेतृत्व में संपन्न महान अक्टूबर क्रांति और लेनिनवादी विचारों के आधार पर सोवियत संघ में पाई गई समाजवादी सफलता ने भारत में विराट पैमाने पर जनव्यापी  स्वाधीनता आंदोलन के विस्तार और राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन की प्रगति सामाजिक दशा में विकास को बढ़ावा दिया।  इसके फलस्वरूप उसकी शक्तियों  में गुणात्मक वृद्धि हुई और विजय की घड़ी निकट आई।  रूस की क्रांति के बाद रूस के द्वारा उपनिवेशों के लिए घोषणा का लक्ष्य, औपनिवेशिक देशों को आर्थिक और राजनैतिक आजादी दिलाकर साम्राजयवाद को समाप्त करना था। 
अतः रूस की 1917 की क्रांति के प्रभाव केवल सोवियत रूस पर ही नहीं पड़े बल्कि पूरे विश्व की राजनीति तथा अर्थव्यवस्था को प्रभावित किया।  युद्ध के बाद की शांति-संधि तथा 1919 के बाद पूरे विश्व के देशों के राजनीतिक संबंधों पर प्रभाव पड़ा।  उपनिवेशों की जनता में अब आत्मनिर्णय की भावना जागृत हुई। 
राजनैतिक स्वतंत्रता के साथ-साथ सामाजिक और आर्थिक न्याय की मांग भी जोर पकड़ती गई।  पश्चिमी देशों की सभ्यता और बौद्धिक अधिपत्य की भावना को चेतावनी मिली।  रूसी क्रांति ने जहां अंग्रेजी हुक्मरानों को भी अपनी नीतियां बदलने पर मजबूर कर दिया।
गांधी जी यद्यपि लेनिन और रूसी क्रांति से प्रभावित थे मगर क्रांति के क्रिया-कलापों को अपने कार्यक्रमों में शामिल करने से बचते रहे। भारत में साम्यवादी दलों का उदय रूसी क्रांति के कारण ही हुआ। आज़ादी के बाद पंडित जवाहर लाल नेहरू ने समाजवादी विचारों को बड़े पैमाने पर आजमाया। योजना आयोग हो या प्रथम पंच वर्षीय योजना उन सबमें लेनिन की समाजवादी सोच का स्पस्ट दर्शन मिलता है।

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